" शहीद-ए-आज़म : भगत से अमरता तक "
पग-पग पर जाग उठी थी क्रांति की पुकार,
नन्हे से मन में थे सपनों के भंडार।
मां की गोद में सुनी गुलामी की आहें,
जन्म लिया वीर ने तोड़े बंधन की राहें।।
किताबों में ढूँढा इतिहास का नूर,
मन में जगी ज्वाला, आँखों में दूर।
कलम से निकले शब्द, तलवार बने,
विचारों के रण में वो अग्रसर बने।।
लाहौर की गलियों में जोश था प्रचंड,
हर सांस कहे – "आज़ादी अनंत।"
संगियों के संग गढ़ा इंकलाब का गीत,
युवा लहू में धड़कन बनी असीम प्रीत।।
लाठी-गोली सहकर भी हँसता रहा,
दर्द को भी उसने प्रण में कसता रहा।
मौत से खेलना मानो जीवन हो गया,
हर लम्हा वतन का परचम हो गया।।
अदालत में गूंजा सत्य का ऐलान,
"इंकलाब जिंदाबाद" बना उसकी पहचान।
जेल की दीवारें भी कांप उठीं रात,
शब्द बने बिजली, मिटा गए अंधकार।।
गुरुद्वारे की वाणी, माँ की दुआएँ,
संग चलती रहीं उसकी सच्ची लगाएँ।
फाँसी का फंदा भी माला सा लगा,
मुस्कुराकर शहीद-ए-आज़म कहलाया।।
आज भी जब देखता हूँ उसका चेहरा,
लगता है जैसे जी रहा हूँ सवेरा।
जतिन का प्रण है – न झुकेगी ये क़लम,
भगत की राह पर चलूँ, रहे अमन।।
– ©️ जतिन त्यागी