बेमतलब होने का डर
कभी आजीविका की भागदौड़ से
जब पल दो पल का सन्नाटा मिलता है,
तो मन अपने ही विचारों की
भट्टी में तपने लगता है।
शब्द उठते हैं,
विचारों की धारा में उलझते हैं,
और मैं…
हर बार अपने ही जाल में कैद हो जाता हूं।
निकलना चाहता हूं—
पर जाल और गहराता जाता है।
थककर बैठता हूं
तो फिर नए सिरे से उलझना शुरू कर देता हूं।
मानो समय का चक्र
मेरे साथ खेल खेल रहा हो।
कभी दूसरों की अच्छाइयों को
अपने जीवन का आदर्श मान लेता हूं,
तो कभी अपनी कमियों से
नज़रें चुरा लेता हूं।
कभी अनमोल जीवन का मोल तौलने लगता हूं,
तो कभी कल्पनाओं के अथाह समंदर में
बिना नाव, बिना किनारे
डूबता चला जाता हूं।
सोचता हूं—
संसार के गड़े हुए मुर्दों को
एक-एक कर बाहर निकाल दूं,
झूठ के नीचे दबे सत्य को
सबके सामने रख दूं।
लेकिन तभी डर लगता है,
कहीं मैं खुद उसी कब्र में
दफन न हो जाऊं।
इस मतलबी दुनिया में
कहीं गुम न हो जाऊं,
दुनिया की तरह
कहीं मैं भी मतलबी न बन जाऊं।
देखी है ये दुनिया
आधी अधूरी, अधूरी सी—
कहीं ऐसा न हो कि
इस अधूरी दुनिया में
मैं भी बेमतलब हो जाऊं।
हाँ, मृत्यु निश्चित है…
हर सांस उस ओर एक कदम है।
पर मेरे भीतर सवाल उठता है—
क्या मृत्यु सचमुच अंत है?
या फिर जीवन का दूसरा नाम ही अमरता है?
डर यही है…
कि मरने के बाद भी
यह मन, यह विचार, यह उलझन
जिंदा रह जाएँ।
और मैं…
मरकर भी
जिंदा न हो जाऊं।