ज़िंदगी का बोझ
कंधों पर बोझ रखा है,
पर कदमों में अब थकान है।
सपनों की किताबें कहीं छूट गईं,
बस ज़िम्मेदारियों का गुमान है।
चेहरे पर हँसी ओढ़ ली मैंने,
दिल में दर्द छुपा लिया।
हर रोज़ थोड़ा और टूटी मैं,
पर किसी से कुछ न कहा है।
कभी सोचा था उड़ूँगी खुली हवा में,
ख्व़ाबों की तरह खिलूँगी उजाला बनकर।
मगर अब तो सांसें भी भारी लगती हैं,
जैसे चल रही हूँ अंधेरा निगलकर।
हे ज़िंदगी, तू क्यों इतना कसती है?
क्यों हर रोज़ इम्तहान लेती है?
कभी तो आँचल में सुकून दे,
क्यों हर पल बस दर्द देती है
कंधों पर बोझ रखा है,
पर कदमों में अब जान नहीं है।
हाँ… थकी हू मैं,मगर टूटी नहीं,
दिल के किसीे कोने में अब भी पहचान है।
ज़िंदगी ने जकड़ा है मुझको,
इम्तिहानों से भरी है राहें।
मगर यकीन है,मुझे सुबह आएगी,
ये रात नहीं टिक पाएगी सदा के लिए।
थकान से झुकी है मेरी नज़र,
पर हिम्मत अब भी सीधी खड़ी है।
मैं गिरूँगी, उठूँगी, लड़ूँगी फिर,
क्योंकि मेरी मंज़िल मुझ स भीे बड़ी है।