"प्लासी की गद्दारी: रॉबर्ट क्लाइब का जादू या हमारे अपने गद्दारों का कमाल?"
1757 की उमस भरी जून की दोपहरी। जगह—प्लासी का मैदान। चारों तरफ़ फैले थे आम के बगीचे—“लक्काबाग”—जहाँ आम कम, ग़द्दारी ज़्यादा पक रही थी।
एक तरफ़ थे बंगाल-बिहार-उड़ीसा के नवाब सिराजुद्दौला, 35 हज़ार पैदल, 15 हज़ार घुड़सवार और सैकड़ों तोपों के मालिक। दूसरी तरफ़ थे रॉबर्ट क्लाइव—ईस्ट इंडिया कम्पनी का एक मामूली क्लर्क, जिसके पास मुश्किल से 200 अंग्रेज, 300 देसी सिपाही और थोड़ी-सी तोपख़ाना थी।
अगर युद्ध इतिहास पढ़ने वाला कोई छात्र इसे पहली बार सुने, तो यही पूछेगा—“ये लड़ा था या मज़ाक था?”
क्योंकि परिणाम वही था, जो होना नहीं चाहिए था—सिराजुद्दौला हार गया, क्लाइव जीत गया।
और हैरानी की बात? अंग्रेज़ों के सिर्फ़ 20 आदमी मरे—7 गोरे, 13 काले।
असल में मैदान में लड़ाई सिराज और क्लाइव की नहीं थी। लड़ाई थी ईमान बनाम लालच की।
नवाब की फ़ौज में बैठे मीर जाफ़र, मीर क़ासिम, जगत सेठ, अमीचंद, नन्दकुमार, मेहँदी निसार जैसे तथाकथित “विश्वस्त” ही असल खेला कर रहे थे। तोपें खड़ी थीं, पर दागी नहीं गईं। तलवारें चमकीं, पर चली नहीं। और सिराज की “अपनों पर भरोसे की भूल” उसकी बर्बादी बन गई।
जब लड़ाई ख़त्म हुई, तो हाथी पर सवार क्लाइव मुर्शिदाबाद पहुँचा।
वहाँ का नज़ारा चौंकाने वाला था—मीर जाफ़र और उसके चमचे, अमीचंद, जगत सेठ, नन्दकुमार, मेहँदी निसार—सब कतार में खड़े, स्वागत को बेताब।
क्लाइव ने मन ही मन सोचा, “अगर ये लाखों लोग एक-एक चुटकी मिट्टी भी मेरी ओर फेंक दें, तो मैं और मेरी सेना यहीं गड़ जाऊँ।” लेकिन हुआ उल्टा। वही लोग उसके आगे बिछते चले गए, जैसे कोई देवता उतर आया हो।
इसी बीच खबर आई—मीर जाफ़र का भाई मीर दाऊद और दामाद मीर क़ासिम ने सिराजुद्दौला को पकड़कर सौंप दिया है।
बस, यहीं क्लाइव के दिमाग़ में एक बिजली कौंधी—“अब तो पूरा हिंदुस्तान हमारी जेब में है।”
और हक़ीक़त भी यही बनी। मुर्शिदाबाद पर क़ब्ज़ा करके ईस्ट इंडिया कम्पनी ने ऐसा धागा डाला कि देखते-देखते पूरा भारत ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया के कदमों तले जा पहुँचा।
अब सवाल यह नहीं रह गया था कि बंगाल का नवाब कौन होगा।
सवाल यह था कि हिंदुस्तानी किसकी कोर्निश करेंगे, किसके तलवे चाटेंगे—अपने ही किसी नवाब के, या फिरंगी क्लाइव के?
असली सबक
इतिहास हमें साफ़-साफ़ आईना दिखाता है।
भारत को कभी कोई विदेशी असली ताक़त से गुलाम नहीं बना सका।
ग़ुलामी हमेशा “भीतर” से आई—अपने ही लालची अमीरों, सत्तालोलुप दरबारियों और आम जनता की चुप्पी से।
प्लासी सिर्फ़ एक युद्ध नहीं था, यह भारत की आत्मा की हार थी।
और सच्चाई यह है कि वह बीमारी आज भी ज़िंदा है—चेहरे बदलते हैं, लेकिन खेल वही चलता है।
हम आज भी ताकते रहते हैं—“अब किसकी कोर्निश करनी है?”
आर के भोपाल