यूँ छिपकर दुनिया से,
मुझे देखकर तू जो मुस्कुराता है,
क्या यही साइलेंट अटैक कहलाता है?
भोर से पहले ही नींद मेरी टूट जाती है,
तेरा नाम मन ही मन पुकार उठता है,
बांग बनकर जो तू जगाता है,
क्या यही साइलेंट अटैक कहलाता है?
महफ़िल में बैठे-बैठे,
बेवजह मैं खिलखिलाने लगती हूँ,
तेरे ख्यालों की हल्की गुदगुदी,
दिल को सताती है,
क्या यही साइलेंट अटैक कहलाता है?
कभी अनजान-सा डर मन में घर करता है,
तेरा साथ कहीं खो न दूँ—
ये सोचकर दिल घबराता है,
क्या यही साइलेंट अटैक कहलाता है?
मान ही लेनी थी तेरी बात,
अब मन हर पल पछताता है,
तेरे बिना जीना मुश्किल लगता है—
क्या यही साइलेंट अटैक कहलाता है?