व्यंग्य - रावण का गुमान
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सड़कों पर शिवभक्त कांवड़ियों का सैलाब उमड़ा था
जिसे देखने का मन यमराज का भी मचल उठा था।
बड़ी शराफत से वह एक घने वृक्ष पर
आकर चुपचाप बैठ गया,
बगल की डाल पर छुपकर बैठे
रावण को देखकर चौंक गया।
बड़े सम्मान से रावण को प्रणाम किया
और यहाँ छुपने का कारण पूछा-
कहने लगा- महाराज! क्या ये आपको शोभा देता है?
रावण दुखी स्वर में बोला
अच्छा तो नहीं लगता यार
पर तू ही बता क्या नाहक है मेरी पीड़ा का सार।
साफ-साफ कहो महाराज!
चोरी चुपके यहाँ आने का मकसद क्या है?
वैसे तो मैं तेरे सवालों का जवाब दूँ, यह मेरा अपमान है,
पर असलियत में मेरा सम्मान ही अब कहाँ बचा है?
हर साल विजय दशमी पर मेरा पुतला जलाया जाता है
उसके बाद आये दिन मानवरुपी रावणों द्वारा
मेरा नाम लगातार खराब किया जाता है,
आज जो जितना बड़ा रावण है,
वो उतना ही मुझे बदनाम करता है,
रावण को अपने पाँव की जूती समझता है,
अब तू कहेगा - इससे क्या फर्क पड़ता है?
तो सुन इससे रावण की छवि का ग्राफ गिरता है।
आज तू भी अपनी आँखों से देख ले-
कांवड़ियों की इस भारी भीड़ में भी
कुछ बहुरुपिए रावणों के तुझे दर्शन कराता हूँ,
अपनी असल पीड़ा का बोध कराता हूँ
चोरी चुपके इस पेड़ पर छुपने यही राज है,
जो बेमन से मैं तुझे बताता हूँ।
भोलेनाथ का सबसे बड़ा भक्त हूँ
इसलिए कुछ ज्यादा ही आहत होता हूँ,
अपने भगवान से भी नहीं कह सकता हूँ
अपनी बेबसी पर सिर्फ रो सकता हूँ।
यमराज हाथ जोड़ कर बोला -
अब कुछ मत कहिए महाराज
मैंने भी सब कुछ अपनी आँखों से देख सुन लिया,
अब मैं वापस अपने काम पर चलता हूँ,
रावण जल्दी बोला- फिर मैं ही अकेला क्या करुँगा यहाँ?
मेरे भगवन मुझे क्षमा करना
मैं भी अपने राज्य की ओर प्रस्थान करता हूँ।
चाहे जितने रावण हो जाएं इस धरती पर
पर अपनी शिव भक्ति का आज भी मैं
अपने आपका बड़ा सौभाग्य समझता हूँ,
लाख बदनामी के बाद रावण आज भी जिंदा है
और आगे भी रहेगा, इसका गुमान करता हूँ।
सुधीर श्रीवास्तव