यह रहे कुछ दोहे (दोहों की शृंखला) समकालीन सामाजिक और राजनीतिक विडंबनाओं पर, हर दोहे में "एरी" (Erry) को प्रतीकात्मक रूप से जोड़ा गया है। ये दोहे कटाक्ष, व्यंग्य और जागरूकता का समावेश करते हैं।
1. गंदी राजनीति पर —
नेता बोले मीठ-सदा, भीतर करे सियासत भारी,
जनता सोचे मसीहा है, असल में लूटे एरी।
2. सामाजिक बुराइयों पर —
दहेज, भेद, जाति का, अब भी गरज रहा बाज़ार,
कितनी एरी सो गई, न्याय के खो गए तार।
3. शिक्षा का व्यापार —
गुरुकुल अब सौदा बने, ज्ञान बिके पैसों में भारी,
एरी सीटी बजाए ज्ञान, चुप बैठी लाचारी।*
4. स्वास्थ्य सेवाओं पर —
डॉक्टर अब व्यवसायी हैं, सेवा नहीं प्राथमिकता,
मरीज़ मरे एरी तले, दवा बन गई राजनीति।*
5. कानून का गंदा खेल —
कानून कहे सबके लिए, पर ताकतवर की सुनवारी,
एरी की कलम टूटी पड़ी, न्याय बना व्यापार भारी।*
6. भ्रष्टाचार पर —
ऊँचे महलों में सजे, रिश्वत के राजकुमार,
एरी जैसे ईमानदार, रहे फांसी पर हर बार।*
7. मीडिया की सच्चाई —
जिसकी थैली भारी हो, उसकी छपे ही तस्वीर,
सच की एरी खामोश पड़ी, बिकती है हर तहरीर।*
8. धर्म के नाम पर व्यापार —
मंदिर-मस्जिद में छुपा, अब स्वार्थ और दलाली,
एरी पूछे, कहां गया वो ईश्वर की सच्ची गाथा वाली?*
9. बेरोजगारी पर —
डिग्रियाँ तो हाथ में, पर रोज़गार कहाँ आए,
एरी रोज़ खड़ा सवाल लिए, चुपचाप सब सह जाए।*
10. महिला सुरक्षा पर —
कानून किताबों में रहे, सड़कें बनें रणभूमि,
एरी चीखे न्याय को, पर सुनवाई हो अधूरी।*
**यदि आपको ये दोहे सामयिक लगे हों,
तो कमेंट में आप भी अपने दोहे या विचार ज़रूर साझा करें —
एरी की आवाज़ तभी बुलंद होगी जब सब बोलेंगे!
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