संत-महात्मा-ज्ञानी
महात्मा बनादास जी महाराज
अठारह सौ इक्कीस में जन्में, बना सिंह था नाम,
गुरुदत्त सिंह पिता थे जिनके अशोकपुर, गोण्डा था ग्राम।
अट्ठारह सौ इक्यावन में बना को पुत्र वियोग हुआ
पार्थिव शरीर लेकर जब पहुँचे अयोध्या
उनको सांसारिक नश्वरता का बोध हुआ।
जिसका उनके अंतर्मन में भीतर तक बहुत प्रभाव पड़ा
फिर बना सिंह लौट कर वापस घर को नहीं गये,
रामघाट पर कुटी बना तप, साधना में रमे रहे,
वहीं पर उनके आराध्य का उनसे सीधा साक्षात्कार हुआ,
और तभी से बना सिंह का बनादास जी नाम हुआ
फिर भवहरण कुंज आश्रम बनाया,
अठारह सौ बानबे में यहीं पर उनका साकेतवास हुआ।
इकतालीस वर्षों में चौंसठ ग्रंथों की रचना कर डाली
राम कृपा से बनादास की साहित्य में फैली हरियाली।
संत प्रवृत्ती बनादास ने सत - साहित्य साधना की।
राम की लीला राम ही जाने, जाने कैसी विधि रचना थी
बनादास हकदार हैं जिसके, उससे अब तक दूरी है
यह कोई मजबूरी है या विधना की चाह यही
कारण चाहे जो भी लेकिन कहता कोई सही नहीं।
समय आ गया वर्तमान की सरकारें अब तो सतत विचार करें
उनके ग्रंथों के संरक्षण, प्रकाशन पर भी ध्यान धरें,
पाठ्यक्रमों में उनका जीवन परिचय होना आज जरूरी है,
महात्मा बनादास जी को जानना जनमानस के लिए जरूरी है।
उनके आश्रम और मंदिर का नया कलेवर अपेक्षित है
बनादास जी न केवल साधू, संत, महात्मा थे,
चौंसठ ग्रंथों को रचने वाले बनादास जी ज्ञानी थे।
ऐसे संत, महात्मा को बारंबार नमन वंदन है
उनके ज्ञान से बढ़े रोशनी,यही हमारा शीतल चंदन है
बनादास जी के चरणों में कोटि कोटि अभिनंदन है।
सुधीर श्रीवास्तव (यमराज मित्र)