हंस उपनिषद के प्रमुख सुक्तियाँ-
(१) सर्वेषु देहेषु व्याप्तो वर्तते।
हंस उपनिषद--५
भाव--समस्त शरीरों में जीव व्यापत
रहता है।
(२) अहोरात्रयोरेकविंशति सहस्राणि
षटशतान्यधिकानि भवन्ति।
हंसोपनिषद--११
भाव--एक अहोरात्र(२४ घण्टे) में इक्कीस हज़ार छः सौ श्वास लिए जाते हैं।
(३) अस्यैव जपकोट्यां नादमनुभवति एवं
सर्वं हंसवशान्नादो दशविधौ जायते।
हंस उपनिषद--१६
भाव--सोऽहं मन्त्र का दस कोटि का जाप कर लेने पर साधक को नाद का अनुभव होता है।
(४) चिणीति प्रथम।
हंस उपननिषद--१६
भाव-पहले शरीर में चुनचुनाहट होती है।
(५) चिञ्चिणीति द्वितीयः।
हंस उपनिषद--१६
भाव--दूसरे में बढ़ी हुयी चुनचनाहट होती है।
(६) घण्टानादस्तृतीयः।
हंस उपनिषद--१६
भाव--तीसरे में घण्टा बजने की आवाज़ आती है।
(७) शंखनादश्चतुर्थम्।
हंस उपनिषद--१६
भाव--चौथे मे शंख बजने की आवाज़ आती है।
(८) पञ्चमस्तन्वीनादः।
हंस उपनिषद--१६
भाव-- पाँचवे में तन्त्री बजने की आवाज़ आती है।
(९) षष्ठस्ताल नादः।
हंस उपनंषद--१६
भाव--छठे में ताल बजने की आवाज़ आती है।
(१०) सप्तमो वेणुनादः।
हंस उपनिषद--१६
भाव--सातवें में बाँसुरी की आवाज़ आती है।
(११) अष्टमो मृदंगनादः।
हंस उपनिषद--१६
भाव--आठवें में मृदंग बजने की आवाज़ आती है।
(१२)) नवमो भेरीनादः।
हंस उपनिषद--१६
भाव-- नवें में भेरी बजने की आवाज़ आती है।
(१३) दशमो मेघनादः।
हंसोपनिषद--१६
भाव-दसवें मे मेघ गर्जना होती है
(१४) नवमं परित्यज्य दसमेवाभ्यसेत्।
हंसोपनिषद--१७
भाव-- नवें को छोड़कर दसवें का आभ्यास करना चाहिए।
इसमें से नवम् का परित्याग करके दसवें नाद का अभ्यास करना चाहिए।
(१५) प्रथमे चिञ्चिणी गात्रं
हंस उपनिषद--१९
भाव--पहले शरीर में चिनचिनी होती है।
(१६) द्वितीये गात्र भञ्जनम्।
हंस उपवनिषद--१९
भाव--दूसरे शरीर अकड़न होती है।में
(१७)तृतीये खेदनं याति।
हंस उपनिषद--१९
भाव--तीसरा शरीर में पसीना होता है।
(१८) चतुर्थे कम्पते शिरः।
हंस उपनिषद--१९
भाव--चौथे सिर में कम्पन होती है।
(१९) पञ्चमे स्त्रवते तालु।
हंस उपनिषद--१९
भाव--पाँचवे तालू में सन्नाव उत्पन्न होता है।
(२०) षष्ठेऽमृतनिषेवणम्।
हंस उपनिषद--१९
भाव--छठे से अमृतवर्षा हेती है।
(२१) सप्तमे गूढ़विज्ञानं।
हंस उरनिषद--१९
भाव--सातवें से गूढ ज्ञान-विज्ञान का लाभ होता है।
(२२) परावाचा तथाऽष्टमे।।
हंसोपनिषद--१९
भाव--आठवें से परावाणी प्राप्त होती है। (२३) अदृश्यं नवमे देहं दिव्यं चक्षुस्तथाऽमलम्।
हंस उपनिषद--
भाव--नौवें से शरीर दिव्य होता है। इससे शरीर को अदृश्य करने(अन्तर्धान होने) की
तथा निर्मल दिव्यदृष्टि की विद्या प्राप्त होती है।
२४) दशमं परमं ब्रह्म भवेद्ब्रह्मात्मसंनिधौ।
हंसोपनिषद--२०
भाव-दसवें में साधक पारब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करके ब्रह्म का साक्षात्कार करता है।