मुसाफ़िर।
मंजिल का तो पता नहीं,फिर भी चलता रहा,
कौन साथ देगा कौन नहीं देगा पता नहीं,फिर भी चलता रहा
हर मोड पर तकलीफ हजार बस सहता रहा,
अजनबियों को अपना बना के चलता रहा,
अपनो को खुश रख कर चलता रहा,
कभी सोचा नहीं खुद के लिये फिर भी चलता रहा,
मुसाफ़िर था मुसाफ़िर की तरह जीता रहा।
- Kamlesh Parmar