Hindi Quote in Poem by Dr Musafir Baitha

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घूर

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गांवों में

शहराती गांवपंथियों के बीच में

घूर लग जाता है

सबेरे-सकाल

सूरज उगकर भी

नहीं उगता या उगता है देर से

अक्सर इन कुहासा भरे शीत दिवसों में


जिंदा घूरे को

शीत के सांघातिक संघनन के

अनुपात में कम या अधिक

खिंचना होता है इस दरम्यान


भले हो अन्न का अकाल

जुटाना बाक़ी हो दो जून की रोटी

इस भोर से उगे दिन को

अपना दिन बनाने के लिये

अपना दीन कम से कम

एक दिन के लिए छांटने के लिए

ख़ुद और परिवार के लिए

घूर के लिए जुगाड़ा जा चुका होता है पर्याप्त

राशन-पानी पिछले दिनों ही


घर और बाहर

टोलेमुहल्ले से

घूर के गिर्द जो बना घेरा होता है दूरे पर

स्त्री पुरुष

बच्चे युवा अधेड़ और वृद्ध का

हर लिंग-उम्र को समेटे

आग से ताप और ऊर्जा पाने के लिए होता है

जबकि बनना इस घेरे का

गँवई संबंधों में बची ऊष्मा का

सुबूत होता है


कहिये

भूत से संभलती आई ऊष्मा

बचती संवरती दिखती है जिनकी बदौलत

घूरा भी वह एक दौलत है!

Hindi Poem by Dr Musafir Baitha : 111916490
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