शीर्षक: राजनीतिक खेल
क्यों पुरुष-पुरुष,स्त्री-स्त्री कहते रहते हो,
सच में समर्थक हो या बस ऐसे ही कहते हो,
लड़ाते रहते हो पुरुष,स्त्री कह कहकर तुम,
और ख़ुद तो तुम बैठकर मस्त मग्न रहते हो,
राजनीतिक खेल खेलते हो लोगों की भावनाओं से,
लड़ाते हो तुम उन्हें और जात,धर्म का मतभेद करते हो,
ख़ुद ईश्वर को मानते भी हो या बस ऐसे ही कहते रहते हो,
मैं भक्त हूं इस भगवान का कहकर तुम डंका पीटते रहते हो,
और त्यौहारों पर ख़ुद राक्षस बन मांसाहार पान करते रहते हो,
अरे..! बताओ तो सही क्यों तुम ऐसा करते रहते हो,
लड़ाते हो पुरुष-पुरुष,स्त्री-स्त्री, जात,धर्म कहकर सबको,
और काम अपना निकाल कर ख़ुद तुम मस्त मग्न रहते हो।
राजनीतिक खेल तो तुम हर रोज़ लोगों की भावनाओं से खेलते रहते हो,
कभी सवाल उठाते हो धर्म पर तो कभी नीच जाति कह लड़वाते रहते हो,
ख़ुद ही जन्माते हो अपने मनमर्ज़ी का धर्म तुम रोज़-रोज़,
और लेकर भगवान का नाम सबको लड़वाते रहते हो,
राजनीति को तुम क्या ख़ूब इस्तेमाल करते हो,
अपना फ़ायदा निकालने के लिए जात,जाति और धर्म को बदनाम करते हो,
बनाकर मूर्ख इन अंधभक्तों को, तुम तो बस आराम करते हो,
और कहते हो जिता दोगे मुझे तुम तो हर घर में ख़ुशहाली होगी,
मैंने तो देखा ही नहीं कभी भी तुम्हें ऐसा करते,
बताओ तो सही,क्या तुम सच में काम करते हो,
अरे! क्या चूना लगाने की कला है तुम्हारी,
कांड अपने और लोगों को बदनाम करते हो,
राजनीति तुम छुपकर नहीं लोगों के सामने ही
उनकी भावनाओं के साथ सरे-आम करते हो,
क्यों पुरुष-पुरुष,स्त्री-स्त्री कहते रहते हो,
सच में समर्थक हो या बस ऐसे ही कहते हो।
- निलेश प्रेमयोगी