कान्हा तुम बसते मेरे मन में
कैसे तुमसे प्रेम जताऊ
रूप रंग ना भावे मुझको
तुझसे जो में नैन मिलाऊ
देख देख कर मैं तो तूझको
मंद मंद जानें क्यू मुस्काऊ
दुनिया कहती प्रेम नही
ये तो सब पल दो पल का सार है
नहीं मिलोगे तुम कलयुग में
जाने क्यों कहता ये सारा संसार है
कान्हा तुम आओ ना मिलने हमसे
कर दो झूठ विष्णु जग सारा
अब तुम ही समझाओ सबको
प्रेम नहीं होता दोबारा
जो मन में तुम बसे
तो कैसे बहकेगा ये मन हारा
होती नहीं जे सीमा प्रेम की
तुमको माना वही आन्नत विराम हमारा
ना सताओ भगवन हमको
कलयुग में भी हमे इंतजार तुम्हारा
तुम तो जानो मेरे मन की
कान्हा तुम तो जीवन का आधार हमारा
तुम तो जानो मेरे मन की
तुमसे ही हैं इस जीवन में प्रेम हमारा।।