दर्द-ए-दिल, ज़ख्म-ओ-ग़म ढो कर,
क्या ही मिला है आँख भिगो कर।
मुझ से ज्यादा तो तू रहता है,
मैंने देखा है खुद में खो कर।
उन की नज़रें रहती फूलों पर,
काँटों को क्या मज़ा आता चुभो कर।
फिर शायद मन हल्का हो जाए,
तू भी तो देख ले थोड़ा रो कर।
चैन-ओ-सुकून है ना ही सुख है,
तुम को क्या ही मिला मेरा हो कर?
क्या शिद्दत से नींद आई है हम को,
साँस रुके इन बाँहों में सो कर।
आखिर तू तैरना सीख गया अक्ष,
आग के दरिया में खुद को डूबो कर।
- akshay Dhamecha