किताब ऐसी लिखी.....
फ़ुरसत के दिनों में सोचा हमने के क्यों न ज़िन्दगी की किताब लिखी जाए,
अपने ना सही शायद किसी और के काम आ जाए।
कोरे सफ़ेद पन्नों पर हमनें शुरू किया बचपन को लिखना,
चंद लम्हे जो याद रहे थे , उनसे बस आधे पन्ने भर पाए।
फिर सोचा हमने गर्म खून से पौने पन्ने भर लेंगे,
कुछ उचाईयां छु लेंगे, कुछ हासिल खास कर लेंगे,
कोई कमी सी शायद इसी सोच में रह गई,
और ना जाने कहां, कब, कैसे हम गलतियां करने लग गए।
कोई ना देखे, परखे, ना सोचे ग़लत इन्हीं बातों में एक और गलती कर गए,
कोई पढ़ ना ले गलतियां हमारी इसलिए उन पन्नों को ही फाड़ते गए।
अंत के क़रीब जा के थोड़े मायूस से हो गए,
नई दुन्हान सी मनमोहक सूरत तो थी ,
पर पढ़ने के लिए पन्ने बस चार रेह गए।
श्रद्धा