मेरे कंधे पर रखी, उस कसी सी बंधी हुई पोटली से टप टप कर रिसता पानी, कोई आम पानी नही बल्कि वो पानी है जो मेरे सपने के पौधे को सींचकर एक दिन एक विशाल पेड़ बनायेगा। मेरे कंधे की उस पोटली में कसकर बंधे मेरे सपने है, जिनका कंठ सूखा है और उसे दरकार है मानव श्रम के पानी की ताकि वो अपना गला तर कर सके। माना मेरी पोटली भरी और भारी हो सकती है, तो उसका कंठ भी विशाल होगा और उसे मेरे श्रम से उपजे पसीने से अपनी प्यास शांत करने के लिए एक सागर लगेगा। टप टप कर रिसता पानी उस सूखे रेगिस्तान में कई पेड़ो और पौधों के काम आएगा, जिस प्रकार असल जीवन में हम अपनी मेहनत से अपने माता पिता का आगे का जीवन संवारते है।
मेरे पसीने की टपकती बूंदे जब उन सूखे निर्मम पत्थरों पर गिरेगी, तो वो भी फिसलकर मेरे सामने से हट जाएंगे और मेरे आगे जाने का मार्ग प्रशस्त करेंगे।
असल में दुनिया को दिखता है वो लंबा रेगिस्तान, पर मुझे दिख रहा है उसके पार एक बड़ा से तालाब जहाँ में अपने सपने की पोटली (जो की अब काफी हलकी हो गयी है चूँकि मुझे मेरे सपने मिलते जा रहे है) तो उसे उतारकर आराम से पानी का एक छींटा अपने मुँह मारकर तथा कुछ देर विश्राम करके और अब उस हलकी सपनों की पोटली को लेकर आगे बढूंगा और अपने बचे हुए सपनों को साकार करूँगा।
चूँकि सपने मेरे है- तो प्रयत्न भी मेरा ही होना चाहिए और इतना भरसक होना चाहिए की सपनो की पोटली से पानी रिसना नही, बहना चाहिए।