मै युद्ध को पीठ पर ढोती हूँ
इसलिए एक हुंकार निकलती है
मैं हर लाज़िमी शब्द पर चिखती हूँ
और नमुनासिब शब्द पर सिस्कती हूँ
तलवार नहीं कलम से मश्तिष्क को तराशती हूं
समझकर भी न समझो
दर्द की धार कितनी पैनी है
प्रसव की पीडा में हूँ जैसे
निरंतर सीने मे आँख बहती है
उसने दो वक़्त की रोटी का जुगाड़ में
अपनी कमर उधार दे दी
उसने दो वक़्त की रोटी में
अपनी छाती साहूकार के पास रख दी
वो दो रोटी के लिए काले हाथो की गोरी हथेलियों फैलता है
तुमने देखा होगा उस बच्चे की कमर पर एक बच्चा सोता है
मेरा सीना छीलता है जब ये कहानी कहती हूँ
वो बूढ़ा बाकी छ: का पेट पाल सके,
अपनी बेटी को हैवनो के हवाले कर आता है
दर्द खेती करता है धड़कनो पर
पर किसानअपनी खेती से ही मर जाता है
उनकी क्या कहानी जो बन्जारे बन गये
पता नहीं उन माँओ की छाती से कब ढूध
फूटता है