हूं मैं कैसा, हूं मैं कहां,
ये सबसे ज्यादा मैंने ही मुझे जाना है|
जहां मिल जाए मुझे चैन,
आजकल वही मेरा ठिकाना है|
अब तो इन खाली राहों ने भी मुझे पहचाना है,
कब से निकला हूं घर से, कब तक लौट कर जाना है?
दिन और रात के इस खाली पहर में कहीं खो ना जाऊं,
ये पहर भी अकेला नहीं, इसमें भी दिन रात है |
कोई है या नहीं, ये वक्त ही मेरे साथ है,
अभी तो सिर्फ शुरुआत है, मुझे थोड़ा दूर जाना है|
कब से निकला हूं घर से, कब तक लौट कर जाना है?
घर के बाहर भी एक दुनिया बन जाती है,
हो अगर सच्चाई रिश्तो में, तो मंजिल भी मिल जाती है|
कहानियां बहुत लिखी हैं, कुछ सच्ची है, कुछ झूठी हैं|
रूकती हैं, जिन्हें पढ़कर तुम्हारी सांसे,
वही मेरे हाथों की निशानी है|
अब तो इन किस्सों में ही अपना दिल लगाना है,
कब से निकला हूं घर से, कब तक लौट कर जाना है?
–SUNIL K DAGAR