हालांकि भगत सिंह रक्तपात के पक्षधर नहीं थे परंतु वे बामपंथी (कम्युनिस्ट) विचारधारा से पूरी तरह से प्रभावित थे इसी कारण पूंजीपतियों की मजदूरी के प्रति शोषण की नीति उन्हें समझ नहीं आती थीं" वे चाहते थे कि मजदूर विरोधी नीति संसद में पारित न हो सके , उनके साथ पूरा देश यह चाहता था कि अंग्रेजों को यह पता चलना चाहिए कि हिंदुस्तानी जग चुके है और उनके हृदय में ऐसी नीतियों के प्रति आक्रोश है, ऐसा करने के लिए उन्होंने दिल्ली की केंद्रीय एसेम्बली में बम फेकने की योजना बनायी। भगत सिंह चाहते थे खून खराबा न हो पूरी योजना के तहत भगतसिंह तथा बटुकेश्वर दत्त का नाम चुना गया , निर्धारित कार्यक्रमानुसार 8 अप्रैल 1929 को असेम्बली में ऐसे स्थान पर बम फेंके जहाँ पर कोई मौजूद न था क्योंकि उनका उद्देश्य स्पष्ट रूप से राष्ट्र के नाम एक संदेश देना जिससे कि सम्पूर्ण विश्व का ध्यान भारत की तरफ आकृष्ट हो सके - बम फेकते हि पूरे असेम्बली में अफरा तफ़री का माहौल बन गया और इन्कलाब जिंदाबाद साम्राज्यवाद मुर्दाबाद की गूज पूरे सदन में सुनाई देने लगी उस वक़्त वो चाहते तो भाग भी सकते थे परंतु यह उनके उद्देश्य के प्रतिकूल था, फलस्वरूप उन्हें फांसी की सजा सुनाई गईं ।
. तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष पं.मदन मोहन मालवीय ने वायसराय के सामने 14 फरवरी 1931में तथा महात्मा गांधी द्वारा 17 फरवरी 1931 को वायसराय से सजा माफ़ी हेतु बात किया गया परंतु "यह सब कुछ भगतसिंह की इक्षा के विपरीत हो रहा था"।
अंततः 23 मार्च 1931 शाम 7.33 को भगतसिंह तथा इनके दो साथी सुखदेव तथा राजगुरू को फाँसी दे दी गयी।
फाँसी के पहले 3 मार्च को अपने भाई कुलतार को भेजे एक पत्र में भगत सिंह ने लिखा था -
उन्हें यह फ़िक्र है हरदम, नयी तर्ज़-ए-ज़फ़ा क्या है?
हमें यह शौक है देखें, सितम की इन्तहा क्या है?
दहर से क्यों ख़फ़ा रहें, चर्ख का क्या ग़िला करें।
सारा जहाँ अदू सही, आओ! मुक़ाबला करें।।
. इन जोशीली पंक्तियों से उनके शौर्य का अनुमान लगाया जा सकता है।।
"भगतसिंह हर एक हिंदुस्तानी के लिए आदर्श प्रेरणप्रति के रूप में आज भी हमारे बीच मे जिंदा हैं"
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