स्व रचित
मीनाकुमारी शुक्ला
तुम आकाश, सुनहरे सपनों सी तुम्हारी ऊंचाई।
मैं वसुन्धरा, गंभीर समुन्दर सी मेरी गहराई।।
मिलन की चाह में, दूरी बनी दर्द भरी रूसवाई।
बहुत किये प्रयास मिलन के, फिर तरकीब आजमाई।।
आँधी बन उड़ी मैं, तुम पर भी काली बदली छाई।
मैं उड़ी चक्रवात सी, उमड़-घुमड़ बारिश भी आई।।
हुआ मिलन अंतरिक्ष में ही, मधुर मिलन बेला आई।।
प्रफुल्लित मन करीब आये, मैं मन ही मन हरसाई।।
अरे....परंतु ये क्या हुआ... जैसे ही मिलन घड़ी आई।
तुमने बाँहें फैलाई और मैं खुद में ही समाई।।
पास आई मैं तुम्हारे..... पर तुम्हारी न हो पाई।
फिर बरसे..... तुम बदली बन, दूर हुई तन्हाई।।
तुम ऊंचाईयों पर रहे, मैं गहराइयों में रही।
हुई मैं नम, कुछ इस तरह तुमने मेरी प्यास बुझाई।।