इस गली में कुछ औरतें बाजार बनकर बैठी हैं
चंद सिक्कों में बिकने को प्यार बनकर बैठी हैं
रूह नहीं महज जिस्मों की जरूरत है सभी को
नई नवेली दुल्हनों सी वो तैयार बनकर बैठी हैं
न मंडप, न शहनाई, न पंडित-फेरों की झंझटें
आपके गले में डलने के लिए हार बनकर बैठी हैं
जान कहो, जानू कहो या जानम ही कह डालो
तुम्हें मदहोश करने के वास्ते बार बनकर बैठी हैं
आजादी के बाद भी जारी है यह ‘व्यापार’ ये
संविधान के कागजी होने का प्रचार बनकर बैठी हैं
ये औरतें सबके लिए चुनाती हैं ‘मधु’ ये सब
इंसानियत की पराजय का विचार बनकर बैठी हैं