#kavyotsav
ग़ज़ल (परवाह)
होते हैं रोज़ तमाशे पर किसे परवाह,
उठते हैं रोज़ जनाज़े पर किसे परवाह,
देखें बहोत नज़ारे पर कोई तुमसा नहीं,
कोई लाख दिखाए बहारें पर किसे परवाह,
कर फ़ना अपनी हस्ती सजाया जो बाग़ीचा,
वो चुभाएं मुझको कांटे पर किसे परवाह,
है ज़िक्र जिन्का हर ग़ज़्ल में वो तो बे फ़िक्र हैं,
अब वाह-वह कर कोई नवाज़े पर किसे परवाह,
फ़ुरकत-ए-यार मे तड़पना वो क्या जाने,
हर पल भरे हम आंहें पर किसे परवाह,
हुए जो बेघर तेरे दिल से फ़िर कोई ठिकाना ना मिला,
हम भटके जो बे सहारे पर किसे परवाह,
अब रही ना कोई हसरत उस बे-वफ़ा की 'सादिक़',
अब बुलाएं भी खोल वो बाहें पर किसे परवाह।
©sadique