#Kavyotsav
ग़ज़ल (सुरुर)
कभी उन पर भी छाया रात दिन मेरा सुरूर था,
था दूर बहोत निगाहों से पर दिल के हुज़ूर था।
चाहा के रोक दूं मैं जुम्मबिश-ए-ज़मान को,
मै बदग़ुमां सा कोई,मुब्तिला-ए-फितूर था।
क्यों उतर गया दिल से मेरे वो कुछ ऐसे,
जो इश्क़ था हमारा,जो हमारा ग़ुरूर था।
रस्म-ए-दुनिया की ज़ंजीरों में बंध गयी थी मुहब्बत,
बे रूह से जिस्म मे,दिल धड़कने को मजबूर था।
हर ख़त जलाया ज़ालिम ने बड़े इत्मीनान से,
पढ़ता था जिसे रात दिन गोया कोई ज़ुबूर था।
वो छोड़ गया मुझे और ये भी ना बताया,
क्या ख़ता थी मेरी,आख़िर क्या क़ुसूर था।
समझेगा तु ये बात कभी किसी रोज़ शायद,
तेरा कुछ नहीं था 'सादिक़',पर कुछ तो ज़ुरूर थ।
©sadique