#kavyotsav
नज़म (सफ़र)
ये हम कहां जा रहे हैं,किस गली! किस शहर!!!
ना निशां किसी मंज़िल का,ना उस तक जाती कोई रहग़ुज़र।
मीलों तक सिर्फ सेहरा है,बंजर है और ये सफ़र,
ना कोई साया है,ना कोई दरया,ना कोई शजर।
एक बार जो संभल जाते, लड़खड़ाते रास्तों पे,
अब ये तूफ़ां क्यों आए फ़िर आज़माने सबर!!
कभी चलते हैं थोड़ा तो कभी ठहर जाते हैं,
कभी ढ़ूंढ़ते है हमराही,कभी कोई हमसफ़र।
आसमां भी कभी बरस जाता है बिन अब्र के,
जब देखता है हमें भटकते चुप-चाप दर-ब-दर।
ज़िन्दगी बेवफ़ा है गर तो उलफ़त-ए-हयात क्यों!!??
कभी देती है खुशियां, कभी आंसू तो कभी ज़हर।।।
सुकूं दे जाए इस क़लब-ए-मुज़तर को,
अब ना होती है वो सुबह,ना वो सहर!!!
हर एक की कहानी, कुछ नयी, कुछ पुरानी,
हर कोई ग़मज़दा,हर कोई साहिब-ए-अजर।
यूं फ़िरते रहना शायद फ़ितरत है हमारी,
नदां है बहोत, समझते नहीं मंज़िल की क़दर।
हम है किसी नशे में या किसी वस-वसे में,किसे पता!!
हम दुनिया से बेख़बर, दुनिया हमसे बेख़बर!!!
कभी पाओ गर जो मंज़िल तो समझोगे 'सादिक़',
कितनों से खाए ठोकर,कितनों ने ढ़ाए कहर।।।।
©sadique