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मैं चाहता हूं कि मैं चाहता हूं कि मैं हर वो बात तुमसे करुँ जो मैं खुद को या तुम्हें लेकर खुद से करता हूं। अपनी और तुम्हारी ही क्यों मैं तो हर वो बात जिसका सम्बंध तुमसे है , मुझसे है , मेरी और तुम्हारी हर दिन की दिनचर्या से है उन लोगों से है ,उन चीजों से है जो मेरी और तुम्हारी जिन्दगी में हर दिन आते है या उन घटनाओं से है ,जो मेरे और तुम्हारे साथ हर दिन घटित होती हैं , जो तुम्हें खुशी देती हैं , परेशान करती हैं , या फिर मुझे भी अशांत करती हैं , सुकून देती हैं , किसी दिन की उपस्थिति को सार्थक बनाती हैं , या उसे किसी दुरूह स्वप्न सा निरर्थक सिद्ध करती हैं । वे सारी बातें मैं तुम्हारे पास बैठकर तुमसे करुँ । तुम उन्हें अपनी पूरी तन्मयता से मन लगाकर सुनो कभी खुश होकर अपनी मधुर मुस्कान समेत मेरी ओर देखो तो कभी दिलासा देने वाली भंगिमा के साथ मेरे स्पंदन का जीवन्त हिस्सा बनो । ये सब कुछ मेरे साथ हो मेरे और तुम्हारे सामने हो तुम्हें इसमें खुशी मिले , कभी कभी तुम चिंता भी जताओ और तुम्हारी उस खुशी या चिंता पर मैं इस तरह से इतराउँ जैसे मुझे मेरे इस जीवन का वास्तविक अर्थ मिल गया हो , या मैंने अपना उद्देश्य पा लिया हो । पर जिन्दगी के प्रश्न इतने सरल होते कि उनके उत्तर हमारी इच्छा के अनुकूल प्रकट हो जाते ! तो मैं यह इच्छा करता ही क्यों ? फिर भी मैं चाहता हूं कि मैं अपनी और तुम्हारी हर बात ,तुमसे ही करुँ, और तुम उसे सुनो । ……………… सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा , साहिबाबाद।
चालीस के बाद चालीस के बाद तो उम्र का ढलाव दिखाई देने लगता है , सपने अंगड़ाई लेना भूल जाते हैं , संवेदनाएं भावनाओं के द्वार पर आकर , अपना रास्ता खो देती हैं , कर्तव्यों का लेखा - जोखा जिंदगी के पन्नों को भरने को आतुर रहता है , नदी किनारे की सुबह हो या शाम सब उसकी धारा के कोलाहल की भेंट चढ़ जाती है , जल का पत्थरों से टकरा कर बिखर जाना और अपने सागर को भूल जाना उसकी नियति होती है , पक्षियों की चहचहाहट उनके थके हुए पंखों की फड़फड़ाहट बन जाती है , पकते हुए बाल , जिंदगी को उसकी शाम के भाव से दूर रखे , को मेंहदी का आलेप देना मजबूरी बन जाती है , सामने से खुद को पल्लू से ढकना आदत में शुमार हो जाता है । डूबते हुए सूरज को देखकर अक्सर कहा करती थीं तुम , चालीस के बाद की उस उम्र में । पर अब ऐसा नहीं होता क्योंकि साथ तुम्हारा होता है , तुम्हारी मुस्कुराती सी आंखे अपनी ही नजर बन जाती है , भले ही सूरज उग रहा हो या पर्वतों में कहीं समा रहा हो , क्षितिज के इस पार या उस पार । बोलो ! जो कह रही हूं वो झूठ है क्या ? नहीं फर्क पड़ता कुछ भी उम्र चालीस के इस पार थी या अब है उस पार। सुरेंद्र कुमार अरोड़ा , साहिबाबाद ।
मनुहार जब भी आऊं मैं तुम्हारी उस गली तुम दूर से ही सिर्फ एक बार मुस्कुरा देना जब भी डालूं एक निगाह तुम्हारी निगाहों में तुम एक बार अपनी निगाहों में मुझे बसा लेना जब भी करूं मैं बात जाने की दूर तुमसे तुम पकड़ कर हाथ मेरे पास अपने बिठा लेना रूठने का जब भी हो दिल तुम्हारा रूठने से पहले मनाने का तरीका समझा देना ये जिन्दगी तो है कुछ वर्षों की कहानी तुम जन्मों का बन्धन मुझसे लिखवा लेना । सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा साहिबाबाद ।
(370 के संहार के अवसर पर ) भाल ,मां भारती का फिर से उठा दिया , गद्दारों की जमात को दिल से रुला दिया , बलिदान वीर सपूतों का काम आज आ गया , स्वर्ग इस धरती का देश ने सजा दिया , दहशत अब कश्मीर में इतिहास बन जाएगी , घाटी कश्मीर की संग देशवासियों के खिलखिलाएगी , इतिहास सेवक नए प्रधान ने लिख दिया , जय घोष मां भारती का निष्कलंक कर दिया । सपूत मेरे देश में एसे ही होने चाहिए शत्रु के संघार के इरादे बुलन्द बनने चाहिए , जो भी देखे ओर इसके, टेढ़ी आंख से आंख उसकी बिन देरी के निकाल देनी चाहिए । समझ लो जयचनदो देश के अंदर सभी , वक़्त सुधरने का तुम्हारा भी है यही। जो न सुधरे अब भी तुम श्वान की दुम सरीखे , दफन दो फीट नीचे भारती में दबोगे सही । सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा साहिबाबाद ।
हे योगेश्वर हे योगेश्वर कृष्ण फिर से तुम अपना अर्जुन भेजो भारत में हाथों में गांडीव को लेकर धरा को कौरव मुक्त करा दो । न भी भेज सको तुम अर्जुन हर हिंदू को अर्जुन बना दो । सुप्त हुए हैं, कायर जो भी प्रहार एक हो , नष्ट करा दो । जयचंदो की बसी हैं बस्तियां हर जयचंद को लुप्त करा दो । जाति - वर्ग का भेद करे जो उस काया को भस्म करा दो । शोषक जो हैं , कलुषित मन से उनको दडों की राह दिखा दो । जितने दुर्योधन भ्रष्ट हुए हैं उनको उनका अंत दिखा दो । जो भी भारत को ठगता - फिरता उससे भारत को मुक्त करा दो । बेईमानी से दूषित जो जन उनको नाली का कीट बना दो । झूठ - फरेब से जो आगे बढ़ते ऐसे सबको नरक दिखा दो । कृष्ण तुम्हारा वैभव चिरंतन इस चेतन की अलख जगा दो । अर्जुन को भेजो धरती पर हर हिंदू को अर्जुन बना दो । समरस होकर नष्ट करें हम ऐसी दृष्टि हिंदू को दिखा दो । भेजो अर्जुन इस धरा पर हर हिंदू को अर्जुन बना दो । सुरेंद्र कुमार अरोड़ा साहिबाबाद ।
बात अपनों से होती है पर अपनी सी नहीं होती , आता है समय हर बार नए साल के रूप में पर होता नहीं है उसमें नया कुछ । नए की तलाश में दूंढता रहा हूं मैं उन अपनों को हर साल कि शायद मिलेंगे वे इस बार जिनसे बात होगी और अपनी सी होगी । न जाने क्यों लगता है मुझे कि ढूंढ ही लूंगा इस बार उसे निश्चय ही क्योंकि करूंगा ढेर सारी बातें खुद के मौन सेवे बातें जो अपनी भी होंगी और अपनों से भी होंगी । सुरेंद्र कुमार अरोड़ा साहिबाबाद ।
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रूह से निकले लफ्जों की वजह होती है रूह से निकले लफ्जों की वजह होती है रात की वीरानियों में भी इक जगह होती है , होती नहीं क्यूं नफ़रत , मुझे अपनी ही परछाई से ये परछाई ही तो मेरे वजूद की नकल होती है । दंभ और हिंसा का लिये फिरते हैं बोझ इसी बोझ तले जिन्दगी फना होती है । मुझको वो मिला सफर के उस वीराने में जहाँ मेरी हेवानियत मुझसे रुबरु होती है । दुत्कारता है जब कोई मुझे मेरी परछाई के साथ , हैवानियत मेरी बेशर्म इक नई कहानी लिखती है । सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा , मो : 9911127277
वीरों की इस धरा पर मुझे ये वरदान चाहिए जयचंदों से रिक्त मुझे मेरा देश चाहिए। आजादी के नाम पर षड्यंत्रों का दुत्कार चाहिए मजहब की आड़ में जेहादी विघटन का तिरस्कार चाहिए। उपरवाले के नाम पर बेलगाम आबादी से हर शख्स का जिम्मेदारी भरा विशवास चाहिए। न भूख चाहिए,न शोषण या अत्याचार चाहिए मुझे मेरे भारत में विस्थापन का विनाश चाहिए। जाती - द्वेष को भूलकर समरसता भरा प्यार चाहिए मुझे मेरे देश में सभी को न्याय का विस्तार चाहिए। अपराधों की दलदल में नर - नारी के संस्कार चाहिए आत्म संपंन्न भारत में संतुष्टि का उपहार चाहिए। मुझे मेरे देश में हर उत्पाद की बहार चाहिए मुझे मेरे देश में हरेक को रोजगार चाहिए। शत्रु के मान मर्दन का जन - जन में उद्घोष चाहिए अखंड मेरे भारत का विश्व में सम्मान चाहिए। सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा , मो: 9911127277
मत मानो बात मेरी तुम हृदय से अपने पूंछ कर सुन लो वक्ष मिलेंगे तुम्हें धड़कते नाम मेरा ही उनमें होगा । झुठलओगी जितना उसे तुम उतना ही वो उफन पड़ेगा मानोगी जब उसका कहना तभी तुम्हें सुकून मिलेगा । सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा डी - श्याम पार्क एक्सटेंशन , साहिबाबाद - ( उत्तर प्र। ) Mo.9911127277
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