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Saroj Verma

Saroj Verma Matrubharti Verified

@sarojverma5358
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बनारस....


मुक्ति का केन्द्र,ईश्वर का द्वार कहलाता हूँ मैं,मैं अपने भीतर समा लेता हूँ कितने ही पार्थिव शरीरों को,मैं बनारस हूँ,ठगों का ठगड़ी करवाने में माहिर,साधुओं का सधुक्कड़ी करवाने में माहिर,अंग्रेजों का अंग्रेजी में माहिर,पण्डितों का संस्कृत में माहिर और बौद्धों का पालि में माहिर होना दिखता है यहांँ पर,क्योंकि मैं बनारस हूँ....
पण्डो में पण्डई में,गुण्डो से गुण्डई में,मेहमानों से भोजपुरी और मैथिली में बतियाता मैं बनारस,गल्तियों पर गरियाता हुआ,उलझने पर पटकता हुआ,मैं बनारस हूँ,सारनाथ से आओ,चाहे लहरतारा से,इलाहाबाद से आओ चाहे मुगलसराय से,डमरु वाले की धरती,मैं बनारस हूँ.....
बनारस में सब गुरु हैं,रिक्शेवाला सड़कों का गुरु,पानवाला पान बनाने में गुरु,पंडे सात पीढ़ी का लेखा जोखा रखने में गुरु,मल्लाह नाव खेने में गुरु,मुल्ला नमाज पढ़ने में गुरु,माली फूलमाला बनाने में गुरु,डोम शरीर को राख करने में गुरु,यहाँ नाई गुरु है,कसाई भी गुरु है,शिष्य गुरु है और गुरु तो गुरु है ही है,इसलिए तो मैं बनारस हूँ,.....
लेकिन यहाँ गुरु के मतलब सबके लिए अलग अलग हैं,जैसे कि किसी के लिए गंगा ही गुरु है,किसी के लिए ज्ञान ही गुरु है,किसी के लिए स्त्री ही गुरू है,किसी के लिए महात्मा ही गुरु है और किसी के लिए उसका धर्म ही गुरु है और बहुतों के लिए उसके माँ बाप ही गुरु हैं,इसलिए तो मैं बनारस हूँ....
बनारस में और भी बहुत कुछ प्रसिद्ध है,जैसे कि बनारसी बाघ जो कि पहले पाए जाते थे,बनारसी माघ का महीना,सबसे ज्यादा सावधान रहने की जरुरत है बनारसी घाघ से और प्रसिद्ध हैं बनारसी जगन्नाथ,यहाँ शैव हैं,वैष्णव हैं,सिद्ध पुरुष हैं,बौद्ध हैं,कबीरपंथी हैं,जगह जगह लगती हैं यहाँ लोक अदालतें, लेकिन यहाँ सभी मुजरिमों की गवाही देती है महागंगा और न्यायमूर्ति हैं बाबा विश्वनाथ,इसलिए तो मैं बनारस हूँ.....
धन से धर्म नहीं,धर्म से धन होता है यहाँ,जब कहीं किसी कोठे पर रोती है बनारसी देवी,तब उसके पास जाकर चैन की नींद सोता है कोई बनारसी दास,किसी को जोगी,किसी को भोगी,किसी को पंडा,किसी को शायर या कवि,किसी को ताली बजाकर पैसा माँगने वाला,किसी को भंगेड़ी-नसेड़ी तो किसी को साँड बना देता है ये बनारस...
बनारस में फूल बिकते हैं,मालाएंँ बिकती हैं,प्रसाद बिकता है,देह भी बिकती है,साहित्य बिकता है,सुख तो नहीं बिकता बनारस में लेकिन वहाँ जाकर सुख प्राप्त जरूर हो जाता है,बनारस सँकरी गलियों में जीता है और घाटों पर मुक्ति लेता है,रात की कालिख धोकर ,उगता सूर्य प्रतिदिन बनारस के मुँह पर एक नया चन्दन लगा देता है,इस तरह से इस संसार को जीने की एक नई कला सिखलाता है ये बनारस....
यहाँ मठ हैं,आश्रम हैं,मल्ल हैं,अखाड़े हैं,व्यायाम है,प्रणायाम है,जो भी बनारस जाता है तो अपना कुछ ना कुछ खोकर ही आता है,जैसे कि कोई सिर के बाल,कोई पैंसों से भरी जेब,तो कोई मन तो कोई तन, शायद यही बनारस है,जीवन की सच्चाई,जीवन का सार,जीवन के सभी रंग दिखते हैं यहाँ,इन्द्रधनुष की भाँति कई रंगों से रंगा मैं बनारस हूँ.....


समाप्त...
सरोज वर्मा....

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प्रेम....


प्रेम एकवचन होता है,लेकिन जब उसके साथ
जुड़ते हैं प्रेमी,प्रेमिका,परिवार और समाज
तो वो बहुवचन हो जाता है...

प्रेम एक सुन्दर भाव है,प्रेम एक अभिव्यक्ति है
लेकिन देखने वालों का नजरिया उसकी परिभाषा
ही बदल देता है..

प्रेम की भाषा मौन होती है,जिसमें आँखें बोलती
हैं और जुबाँ चुप रहती है,उसमें सिर्फ़ दिल धड़कता
हैं और मन भटकता है...

प्रेम को ना पढ़ा जा सकता और ना ही लिखा जा सकता है,
उसका कोई स्कूल नहीं होता,उसका कोई काँलेज नहीं होता
और ना उसकी कोई डिग्री होती है....

प्रेम सबसे बड़ी पीड़ा और सबसे बड़ा सुख है,प्रेम मजबूत
बनाता है,तो कभी प्रेम बेबस और लाचार भी बना देता है,
यदि जीवन है तो कभी मृत्यु भी बन जाता है प्रेम...

आँखों से होकर आत्मा में बहता है प्रेम,प्रेम में आँखें सोती हैं,
और हृदय रंगीन सपनों की चौकीदारी करता है और मन
लिखता रहता है सुन्दर सी कविताएँ...

बोलने का हुनर शब्दों के अर्थ बता देता है और मौन की पीड़ा को
स्वतः ही शब्द मिल जाते हैं,आँखों ही आँखों में बातें होतीं हैं,
बस रातें यूँ ही करवट बदलते कट जाती हैं...

फिर आता है वो दौर कि तुम बोलते क्यों नहीं हो?
तुम सुनती क्यों नहीं हो? अब क्या होगा,इसे पता
चल गया और उसे पता चल गया....

फिर प्रेमी उसी तरह मर जाते हैं ,जैसे कई सारे सवाल
जवाब की उम्मीद में मर जाते हैं,सच्चा प्रेम शायद बहुत
कम ही मुकम्मल होता है....


सरोज वर्मा...✍️

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जीवन का सफ़र...


हमारे जीवन का सफ़र,तय हो रहा है कुछ इस कद़र,
जिस तरह सूखता है कोई दरख्त दिनबदिन,लेकिन
फिर भी कोशिश जारी है उसे हरा रखने की...

झूठा अभिनय करते हुए हम जिन्दा रहते हैं,
ठीक उस तरह से जैसे कोई पुराना पोंछा घिस
घिसकर फट चुका है,फिर भी जारी है उसका इस्तेमाल

और हम जल जलकर अब भी जिन्दा हैं,ठीक उसी
कोयले की तरह जो जल जलकर बन जाता है अंगार
लेकिन बुझकर,फिर भी जारी है उसका इस्तेमाल

जैसे हर रोज बटलोई चढ़ती है चूल्हे पर,हर रोज
पकती है दाल उसमें,खाली होती है फिर माँजकर
रख दी जाती है कोने में,वैसा ही ये जीवन का सफ़र

हमारी अभिनय क्षमता कितनी सटीक है,हर रोज
मरकर भी हम खुदा को जिन्दा दिखाते हैं,हैं ना ये
इस दुनिया की कितनी रोमांचक कहानी.....


समाप्त...
सरोज वर्मा...

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मुस्कान की कहानी...



कितनी बार रोकती है वो अपनी आँखों
से बहते आँसुओं को अपनी ही आँख में
फिर भी उसी पल फैल जाती है मुस्कान
उसके सूखे अधरों पर....

उसके उन अधरों पर मुस्कान लाने की
कामयाब कोशिश किसी करिश्मे से कम
नहीं होती,जिसमें छिपी होती है कितनी
हिंसा और तिरस्कार....

वो हरदम जूझती है अपने आत्मसम्मान
से,अपने भीतर की ताकत से,उन व्याधियों
से जो हरपल उसे भीतर से कोंचते हैं,करते
हैं लहुलुहान उसकी आत्मा को....

हरदम दुख के दालानों से गुजरती,नहीं खोलती
वो बसंत देखने के लिए मन की खिड़की,बस ढाँप
लेती है आकाश का सारा अँधेरा अपने आँचल से
और जगमगाती है हरदम तारों की तरह.....

जीवन और मजबूरी का पाठ पढ़ती हुई,जुल्मों से
जूझती हुई,त्रिया चरित्तर का इल्जाम झेलती हुई
शायद यही उसकी खूबसूरत फ़नकारी है,है ना
कितनी जटिल उसके मुस्कान की कहानी......


समाप्त...
सरोज वर्मा...

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एक लाख लोंग ग़लत नहीं हो सकते......संजय चतुर्वेदी की कविता


इस अख़बार की एक लाख प्रतियाँ बिकती हैं

एक लाख लोगों के घर में खाने को नहीं है

एक लाख लोगों के पास घर नहीं हैं

एक लाख लोग

सुकरात से प्रभावित थे

एक लाख लोग

रात को मुर्ग़ा खाते हैं

एक लाख लोगों की

किसी ने सुनी नहीं

एक लाख लोग

किसी से कुछ कहना ही नहीं चाहते थे

भूकंपों के इतिहास में

एक लाख लोग दब गए

नागासाकी के विस्फोट में

एक लाख लोग ख़त्म हो गए

एक लाख लोग

क्रांति में हुतात्मा हुए

एक लाख लोग

साम्यवादी चीन से भागे

एक लाख लोगों को लगा था

यह लड़ाई तो अंतिम लड़ाई है

एक लाख लोग

खोज और अन्वेषण में लापता हो गए

एक लाख लोगों को

ईश्वर के दर्शन हुए

एक लाख लोग

मार्लिन मुनरो से शादी करना चाहते थे

स्तालिन के निर्माण में

एक लाख लोग काम आए

निक्सन के बाज़ार में

एक लाख लोग ख़र्च हुए

एक लाख लोगों के नाम की सूची इसलिए खो गई

कि उनके कोई राजनीतिक विचार नहीं थे

एक लाख लोग बाबरी मस्जिद को

बर्बर आक्रमण का प्रतीक मानते थे

एक लाख लोग

उसे गिराए जाने को ऐसा मानते हैं

एक लाख लोग

जातिगत आरक्षण को प्रगतिशीलता मानते हैं

एक लाख लोग

उसे समाप्त करने को ऐसा मानेंगे

एक लाख लोगों ने

अमेज़न के जंगल काटे

एक लाख लोग

उनसे पहले वहाँ रहते थे

एक लाख लोग ज़िंदा हैं

और अपने खोजे जाने का इंतज़ार कर रहे हैं

एक लाख लोग

पोलियो से लँगड़ाते हैं

एक लाख लोगों की

दाढ़ी में तिनका

एक लाख लोग बुधवार को पैदा हुए

और उनके बाएँ गाल पर तिल था

एक लाख लोगों ने

गणतंत्र दिवस की परेड देखी

एक लाख लोग

बिना कारण बीस साल से जेल में हैं

एक लाख लोग

अपनी बीवी-बच्चों से दूर हैं

एक लाख लोग

इस महीने रिटायर हो जाएँगे

एक लाख लोगों का

दुनिया में कोई नहीं

एक लाख लोगों ने

अपनी आँखों के सामने अपने सपने तोड़ दिए

एक लाख लोग

ज़मीन पर अपना हक़ चाहते थे

एक लाख लोग

समुद्रों के रास्ते से पहुँचे

एक लाख लोगों ने

एक लाख लोगों पर हमला किया

एक लाख लोगों ने

एक लाख लोगों को मारा।



समाप्त......
संजय चतुर्वेदी.....

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आरम्भ मेरा.....


जीवों का आरम्भ हुए इस धरती पर
ना जाने कितनी सदियाँ हो गई
लेकिन मेरा आरम्भ जब हुआ तो,
लोगों की आँखों में नमी थी,
कुछ भी हो लोगों को अखरी थी बेटी,
और दिलों में बेटे की कमी थी,

मेरे मन को तोड़कर,एहसासों को मरोड़कर,
मेरे भावों पर लगाकर ताला,कर्तव्यों का पाठ
पढ़ा,जीना मुझे सिखाया संस्कारों की घूटी
देकर,मेरी हर उमंग हर तरंग को कैद किया,
क्या यही आरम्भ था मेरा?

फिर हुआ आरम्भ दूसरा जीवन मेरा ,
किसी की जीवन संगिनी बन,लिया उसके संग फेरा,
उसका जीवन महकाया,माँ बनने का दर्जा पाया,
खुश बहुत थी मैं लेकिन मन बहुत बुझा मेरा,
अंश मेरा,लहू मेरा लेकिन नाम पिता का,
क्या यही आरम्भ था मेरा?

सदैव रही मैं त्याग की देवी,ममता का सागर,
समर्पण की मिसाल,संस्कारों की गागर,
मैं दया थी,मैं थी जननी,मैं थी अर्धांगिनी
मैं पीड़ित थी भीतर से,तब भी मूक थी,
मैं गंगा सी गहरी और सागर सी विशाल थीं
क्योंकि अक्सर ये सोचा करती थी...
क्या यही आरम्भ था मेरा?

फिर मुझे एहसास हुआ कि इस संसार को
तो कभी मैनें अपनी दृष्टि से देखा ही नहीं,
मैनें तो वही देखा जो मुझे दिखाया गया,
ये जीवन मेरा था लेकिन इसे तो मैं दूसरों
के अनुसार जी रही थी,आखिर क्यों?
क्या यही आरम्भ था मेरा?

अब मैं भी जाग चुकी हूँ,आँखों पर पड़े
परदे हटाकर,देखूँगी इस संसार को,
झूमूँगी,नाचूँगी,काटूँगी दास्ताँ की बेड़ियाँ,
हर उस दहलीज को लाघूँगी,जिसे लाँघने की
मनाही थी अब तक मुझे,फिर से जन्मूँगी,
बताऊँगी सबको कि ये अब है आरम्भ मेरा....

सरोज वर्मा....

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बेटी के अन्तर्मन की आवाज़..


क्या मैं आपको याद हूँ पिताजी?क्या मुझे कभी याद करते हैं आप,क्योंकि मेरे ससुराल में तो मुझे आपको क्षण क्षण याद कराया जाता है कि यही सीखा है बाप के घर में,कुछ नहीं लाई बाप के घर से,बाप के यहाँ भी कभी ऐसा पहना और खाया है,काश ये सब भी बताकर भेजा होता आपने....
लेकिन मैं आपके लिए केवल एक प्रवासी चिड़िया थी जिसे आपके घर केवल कुछ दिन ही रहना था या थी आपके खेतों की खरपतवार जिसे तो एक दिन कटना ही था,क्या मैं सच में याद हूँ आपको शायद नहीं!क्योंकि जीवनपर्यन्त मेरे साथ यही वाक्य चलता रहा....तुम त्रिपाठी जी की बेटी हो ना!इधर उधर मुहल्ले पड़ोस में सबको याद रहा कि मैं आपकी बेटी हूँ तो आप कैसें भूल गए...
माँ को शायद थोड़ी बहुत याद रही हो मेरी लेकिन आपको शायद बिल्कुल नहीं,जब कभी मैं आपके घर आती तो माँ कहती जा पिता बरामदे में बैठें हैं अपने दोस्तों के साथ,तुझे पूछ रहे थे कि कब आई,मैनें उसे देखा नहीं,तब माँ के कहने पर मैं भतीजी के संग गैर मन से आपसे मिलने आती,तब आप अपने दोस्तों से गर्व से कहते....मेरी बेटी है,ससुराल में कुछ भी दुख तकलीफ़ हो हमसे कभी नहीं कहती,सब सहती रहती है,बड़ी अच्छी बेटी है हमारी ,बड़ा मान बनाकर रखा है हमारा अपने ससुराल में...
तब आपके दोस्त कहते...
बेटी!धूप में क्यों खड़ी हो?पैरों में चप्पल भी नहीं,पैर जल जाएंगे...
तब आप गर्व से कहते....
हमारी बेटी है इसे तो सहने की आदत है,
मैं संकोचवश सिर झुकाएं यूँ ही खड़ी रहती तब आप पूछते....
समधी जी ठींक हैं,दमाद जी की मास्टरी कैसी चल रही है और नाती क्यों नहीं आया इस बार....
आपके प्रश्नों से मन आहत होता था क्योकिं उन प्रश्नों में मैं कहीं भी शामिल नहीं होती थी कि बेटी तुम कैसी हो,अच्छा हुआ जो तुम आईँ...
फिर आप सुनाने लगते,अब की बार बारिश नहीं हुई तो गेहूँ की लागत अच्छी ना निकली,ओले पड़े तो सरसों का फूल खेत में ही मर गया,बैल मर गया था.....इत्यादि....इत्यादि....
लेकिन मेरी समस्याओं का क्या?
ये सुनकर मेरी आँखें डबडबा जातीं और मैं आसमान की ओर देखने लगती ,तब भतीजी कहती है बुआ!धूप है भीतर चलो और मैं भीतर चली जाती ......
लेकिन तब मेरा मन चीखकर आपसे पूछना चाहता था कि क्या आपकी सभी समस्याओं की भाँति मैं भी आपके लिए केवल एक समस्या मात्र थी....लेकिन कोई फायदा नहीं क्योंकि अगर मैनें ये पूछा तो उस पल मैं आपकी भद्र बेटी से अभद्र बेटी हो जाऊँगी...
क्योंकि बुआ कहा करती थी कि कब तक बैठाकर रखोगे इसे अपने घर में, भाइयों के लिए कुछ छोड़ेगी या नहीं कि सब चर जाएगी,भाइयों को हाय लगती है ,सो पिता लो सब छोड़ दिया अपने भाइयों के लिए अब हाय नहीं लगेगी,सब उन्हीं का तो है.....बेटी का तो ना उस घर में कुछ है और ना इस घर में कुछ है,कभी तो पढ़ा होता मेरा अन्तर्मन......

समाप्त....
सरोज वर्मा.....

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जिन्दगी की पहेली.....


कितनी उलझी उलझी सी है ये जिन्दगी की पहेली,
तड़प,कितने आँसू कितना दर्द और जान अकेली,

कभी तो बाबुल से बिछड़ने का ग़म तो कभी
पिया मिलन की जल्दी जैसे दुल्हन हो नयी नवेली,

खुशी के आँसू तो कभी ग़म के आँसुओं की झड़ी,
विरहा की तड़पती रातें तो कभी मिलन की रुत अलबेली,

कितना इन्तजार किया,रसिया मनबसिया नहीं आया,
सालों से सूनी पड़ी है मेरे दिल की हवेली...

कभी रो रो के रातें काटीं तो कभी हँस के अलविदा कहा,
कितनी बार लोंगो की नफरत भरी निगाहें हैं झेलीं,

ये जिन्दगी है ऐसी किसी पल हँसे तो कभी रोएं,
जिन्दगी ने दिखाएं हैं कितने कितने रंग सहेली,

फाग तो हरदम दिल तोड़ने वालों ने है खेली,
हमने तो दिल के लहू से हैं खेली हरदम यहाँ होली....

याह....खुदा ना तो अब मरहम की जरूरत है,
ना ही दुआओं की,दिल तोड़ने वालों ने मेरी जान ही ले ली....

समाप्त....
सरोज वर्मा....

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नफरत...

बड़ी नफ़रत से करता है ये ज़माना,
जमाने की बातें,

खुद के भीतर झाँकता नहीं, बस
दिखलाता है अपनी जातेँ,

फैलती जा रही है नफ़रत की आग
इस जमाने में,

उस नफ़रत की आग को बुझाने के
लिए बेहतर है कि इश़्क करो,

जिन्दा ना जलाओ लोगों को ना
ही किसी का कत्ल करों,

नफ़रत है जहाँ में तो यहाँ मौहब्बत भी
कम नहीं,

तू कोशिश तो कर नफ़रत मिटाने की,
मौहब्बत से बड़ी कोई क़ौम नहीं,

वही नफ़रत है,वही दहशत है,इस बात
का क्या मतलब,

इन्सान इन्सान रटता रहता है लेकिन तू
इन्सान बनेगा कब,

जख्मी है इन्सानियत,जख्मी हो रहे हैं मुल्क,
इस नफ़रत को समेटने कोई तो आएं अब,

देखते हैं दिन बदलते हैं कब,हाथों में हाथ,
मिलते हैं कब,

इन्तज़ार हैं सभी को उस वक्त का,गुलिस्ताँ
सँवारने कोई मसीहा आएं तो अब,

समाप्त.....
सरोज वर्मा....

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आदर्श...


आदर्श एक वाणी सम्बन्धी कलाबाजी है,जो कि मुझे नहीं आती,
मैं तो हूं एक सीधा सादा सा आदमी इस कलाबाज़ जमाने का,

आदर्श का ढकोसला ओढ़ना मेरे बस की बात नहीं,
मैं कपटी नहीं, बेईमान नहीं,बहती ही भावों की प्रबलता मेरे भीतर,

मैं खड़ा हूं यथार्थ के जीवित शरीर पर, क्योंकि मेरा मन मृत नहीं,
मैं हंँस नहीं सकता बहुरूपियों की भांँति,झूठे आंँसू बहा सकता नहीं किसी के शोक पर,

मैं अगर बना आदर्शवादी तो खो दूंँगा वजूद अपना,आत्मा धिक्कारेगी मेरी मुझ पर
और करेगी प्रहार मेरे कोमल मन पर सदैव ,दम सा घोटने लगें हैं अब ये आदर्श मेरे,

क्योंकि मेरी आदर्शवादिता ने छला है सदैव मुझको, शायद खो चुका हूंँ स्वयं को मैं
कर्तव्य निभाते निभाते,तब भी अकेला था अब भी अकेला ही हूँ मैं,

आदर्श एक ऐसा भ्रम है, जो केवल देता है विफलता,
क्योंकि आपके कांधे पर चढ़कर सफल हो जाता है और कोई,

आदर्श एक ऐसा टैग है जिसे लोगों ने चिपका दिया है आप पर,
केवल आपको बेवकूफ बनाने के लिए,ऐसे लोंग जो करते हैं केवल आपसे ही अपेक्षाएं,

आदर्श बनने का नियम वें लागू नहीं कर सकते स्वयं पर,
क्योंकि आप हैं ना उन की अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए...
 
इसलिए आदर्श बनने की इच्छा ने अब दम घोंट लिया है मेरे अन्तर्मन में,
मैं जैसा हूंँ बढ़िया हूंँ, अच्छा हूंँ नहीं बनना मुझे अब आदर्श किसी का....

समाप्त....
सरोज वर्मा....

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