जिन्दगी की पहेली.....
कितनी उलझी उलझी सी है ये जिन्दगी की पहेली,
तड़प,कितने आँसू कितना दर्द और जान अकेली,
कभी तो बाबुल से बिछड़ने का ग़म तो कभी
पिया मिलन की जल्दी जैसे दुल्हन हो नयी नवेली,
खुशी के आँसू तो कभी ग़म के आँसुओं की झड़ी,
विरहा की तड़पती रातें तो कभी मिलन की रुत अलबेली,
कितना इन्तजार किया,रसिया मनबसिया नहीं आया,
सालों से सूनी पड़ी है मेरे दिल की हवेली...
कभी रो रो के रातें काटीं तो कभी हँस के अलविदा कहा,
कितनी बार लोंगो की नफरत भरी निगाहें हैं झेलीं,
ये जिन्दगी है ऐसी किसी पल हँसे तो कभी रोएं,
जिन्दगी ने दिखाएं हैं कितने कितने रंग सहेली,
फाग तो हरदम दिल तोड़ने वालों ने है खेली,
हमने तो दिल के लहू से हैं खेली हरदम यहाँ होली....
याह....खुदा ना तो अब मरहम की जरूरत है,
ना ही दुआओं की,दिल तोड़ने वालों ने मेरी जान ही ले ली....
समाप्त....
सरोज वर्मा....