जीवन का सफ़र...
हमारे जीवन का सफ़र,तय हो रहा है कुछ इस कद़र,
जिस तरह सूखता है कोई दरख्त दिनबदिन,लेकिन
फिर भी कोशिश जारी है उसे हरा रखने की...
झूठा अभिनय करते हुए हम जिन्दा रहते हैं,
ठीक उस तरह से जैसे कोई पुराना पोंछा घिस
घिसकर फट चुका है,फिर भी जारी है उसका इस्तेमाल
और हम जल जलकर अब भी जिन्दा हैं,ठीक उसी
कोयले की तरह जो जल जलकर बन जाता है अंगार
लेकिन बुझकर,फिर भी जारी है उसका इस्तेमाल
जैसे हर रोज बटलोई चढ़ती है चूल्हे पर,हर रोज
पकती है दाल उसमें,खाली होती है फिर माँजकर
रख दी जाती है कोने में,वैसा ही ये जीवन का सफ़र
हमारी अभिनय क्षमता कितनी सटीक है,हर रोज
मरकर भी हम खुदा को जिन्दा दिखाते हैं,हैं ना ये
इस दुनिया की कितनी रोमांचक कहानी.....
समाप्त...
सरोज वर्मा...