बनारस....
मुक्ति का केन्द्र,ईश्वर का द्वार कहलाता हूँ मैं,मैं अपने भीतर समा लेता हूँ कितने ही पार्थिव शरीरों को,मैं बनारस हूँ,ठगों का ठगड़ी करवाने में माहिर,साधुओं का सधुक्कड़ी करवाने में माहिर,अंग्रेजों का अंग्रेजी में माहिर,पण्डितों का संस्कृत में माहिर और बौद्धों का पालि में माहिर होना दिखता है यहांँ पर,क्योंकि मैं बनारस हूँ....
पण्डो में पण्डई में,गुण्डो से गुण्डई में,मेहमानों से भोजपुरी और मैथिली में बतियाता मैं बनारस,गल्तियों पर गरियाता हुआ,उलझने पर पटकता हुआ,मैं बनारस हूँ,सारनाथ से आओ,चाहे लहरतारा से,इलाहाबाद से आओ चाहे मुगलसराय से,डमरु वाले की धरती,मैं बनारस हूँ.....
बनारस में सब गुरु हैं,रिक्शेवाला सड़कों का गुरु,पानवाला पान बनाने में गुरु,पंडे सात पीढ़ी का लेखा जोखा रखने में गुरु,मल्लाह नाव खेने में गुरु,मुल्ला नमाज पढ़ने में गुरु,माली फूलमाला बनाने में गुरु,डोम शरीर को राख करने में गुरु,यहाँ नाई गुरु है,कसाई भी गुरु है,शिष्य गुरु है और गुरु तो गुरु है ही है,इसलिए तो मैं बनारस हूँ,.....
लेकिन यहाँ गुरु के मतलब सबके लिए अलग अलग हैं,जैसे कि किसी के लिए गंगा ही गुरु है,किसी के लिए ज्ञान ही गुरु है,किसी के लिए स्त्री ही गुरू है,किसी के लिए महात्मा ही गुरु है और किसी के लिए उसका धर्म ही गुरु है और बहुतों के लिए उसके माँ बाप ही गुरु हैं,इसलिए तो मैं बनारस हूँ....
बनारस में और भी बहुत कुछ प्रसिद्ध है,जैसे कि बनारसी बाघ जो कि पहले पाए जाते थे,बनारसी माघ का महीना,सबसे ज्यादा सावधान रहने की जरुरत है बनारसी घाघ से और प्रसिद्ध हैं बनारसी जगन्नाथ,यहाँ शैव हैं,वैष्णव हैं,सिद्ध पुरुष हैं,बौद्ध हैं,कबीरपंथी हैं,जगह जगह लगती हैं यहाँ लोक अदालतें, लेकिन यहाँ सभी मुजरिमों की गवाही देती है महागंगा और न्यायमूर्ति हैं बाबा विश्वनाथ,इसलिए तो मैं बनारस हूँ.....
धन से धर्म नहीं,धर्म से धन होता है यहाँ,जब कहीं किसी कोठे पर रोती है बनारसी देवी,तब उसके पास जाकर चैन की नींद सोता है कोई बनारसी दास,किसी को जोगी,किसी को भोगी,किसी को पंडा,किसी को शायर या कवि,किसी को ताली बजाकर पैसा माँगने वाला,किसी को भंगेड़ी-नसेड़ी तो किसी को साँड बना देता है ये बनारस...
बनारस में फूल बिकते हैं,मालाएंँ बिकती हैं,प्रसाद बिकता है,देह भी बिकती है,साहित्य बिकता है,सुख तो नहीं बिकता बनारस में लेकिन वहाँ जाकर सुख प्राप्त जरूर हो जाता है,बनारस सँकरी गलियों में जीता है और घाटों पर मुक्ति लेता है,रात की कालिख धोकर ,उगता सूर्य प्रतिदिन बनारस के मुँह पर एक नया चन्दन लगा देता है,इस तरह से इस संसार को जीने की एक नई कला सिखलाता है ये बनारस....
यहाँ मठ हैं,आश्रम हैं,मल्ल हैं,अखाड़े हैं,व्यायाम है,प्रणायाम है,जो भी बनारस जाता है तो अपना कुछ ना कुछ खोकर ही आता है,जैसे कि कोई सिर के बाल,कोई पैंसों से भरी जेब,तो कोई मन तो कोई तन, शायद यही बनारस है,जीवन की सच्चाई,जीवन का सार,जीवन के सभी रंग दिखते हैं यहाँ,इन्द्रधनुष की भाँति कई रंगों से रंगा मैं बनारस हूँ.....
समाप्त...
सरोज वर्मा....