आरम्भ मेरा.....
जीवों का आरम्भ हुए इस धरती पर
ना जाने कितनी सदियाँ हो गई
लेकिन मेरा आरम्भ जब हुआ तो,
लोगों की आँखों में नमी थी,
कुछ भी हो लोगों को अखरी थी बेटी,
और दिलों में बेटे की कमी थी,
मेरे मन को तोड़कर,एहसासों को मरोड़कर,
मेरे भावों पर लगाकर ताला,कर्तव्यों का पाठ
पढ़ा,जीना मुझे सिखाया संस्कारों की घूटी
देकर,मेरी हर उमंग हर तरंग को कैद किया,
क्या यही आरम्भ था मेरा?
फिर हुआ आरम्भ दूसरा जीवन मेरा ,
किसी की जीवन संगिनी बन,लिया उसके संग फेरा,
उसका जीवन महकाया,माँ बनने का दर्जा पाया,
खुश बहुत थी मैं लेकिन मन बहुत बुझा मेरा,
अंश मेरा,लहू मेरा लेकिन नाम पिता का,
क्या यही आरम्भ था मेरा?
सदैव रही मैं त्याग की देवी,ममता का सागर,
समर्पण की मिसाल,संस्कारों की गागर,
मैं दया थी,मैं थी जननी,मैं थी अर्धांगिनी
मैं पीड़ित थी भीतर से,तब भी मूक थी,
मैं गंगा सी गहरी और सागर सी विशाल थीं
क्योंकि अक्सर ये सोचा करती थी...
क्या यही आरम्भ था मेरा?
फिर मुझे एहसास हुआ कि इस संसार को
तो कभी मैनें अपनी दृष्टि से देखा ही नहीं,
मैनें तो वही देखा जो मुझे दिखाया गया,
ये जीवन मेरा था लेकिन इसे तो मैं दूसरों
के अनुसार जी रही थी,आखिर क्यों?
क्या यही आरम्भ था मेरा?
अब मैं भी जाग चुकी हूँ,आँखों पर पड़े
परदे हटाकर,देखूँगी इस संसार को,
झूमूँगी,नाचूँगी,काटूँगी दास्ताँ की बेड़ियाँ,
हर उस दहलीज को लाघूँगी,जिसे लाँघने की
मनाही थी अब तक मुझे,फिर से जन्मूँगी,
बताऊँगी सबको कि ये अब है आरम्भ मेरा....
सरोज वर्मा....