नफरत...
बड़ी नफ़रत से करता है ये ज़माना,
जमाने की बातें,
खुद के भीतर झाँकता नहीं, बस
दिखलाता है अपनी जातेँ,
फैलती जा रही है नफ़रत की आग
इस जमाने में,
उस नफ़रत की आग को बुझाने के
लिए बेहतर है कि इश़्क करो,
जिन्दा ना जलाओ लोगों को ना
ही किसी का कत्ल करों,
नफ़रत है जहाँ में तो यहाँ मौहब्बत भी
कम नहीं,
तू कोशिश तो कर नफ़रत मिटाने की,
मौहब्बत से बड़ी कोई क़ौम नहीं,
वही नफ़रत है,वही दहशत है,इस बात
का क्या मतलब,
इन्सान इन्सान रटता रहता है लेकिन तू
इन्सान बनेगा कब,
जख्मी है इन्सानियत,जख्मी हो रहे हैं मुल्क,
इस नफ़रत को समेटने कोई तो आएं अब,
देखते हैं दिन बदलते हैं कब,हाथों में हाथ,
मिलते हैं कब,
इन्तज़ार हैं सभी को उस वक्त का,गुलिस्ताँ
सँवारने कोई मसीहा आएं तो अब,
समाप्त.....
सरोज वर्मा....