Quotes by Jatin Tyagi in Bitesapp read free

Jatin Tyagi

Jatin Tyagi Matrubharti Verified

@jatintyagi05
(230)

"जो मिल जाए सहजता से, उसकी कोई बात नहीं है,
विशेषता तब है पाई, जब कठिनाई राह में आती है।
जिनकी जिद न छूटी कभी, उनकी मेहनत रंग लाई,
वो सफल होते हैं सच्चे में, जो कहते थे मुक़द्दर लिखाई।" - ©️ जतिन त्यागी

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मैं बाग़ी ही रहूँगा उन महफिलों का,
जहां शोहरत तलवे चाटने से मिलती है।

मैं अपने अज़्म की कीमत न चुकाऊँगा,
ना बेवजह के तावीज़ों को सजाऊँगा।।

मैं सच्चाई की राह पर चलता रहूँगा,
चाहे जो भी कीमत हो, पर अपना रास्ता न छोड़ूँगा।

मुझे परवाह नहीं उनकी चमक-दमक से,
मैं सच की राह पर अपना इंकलाब लाऊँगा।।

मैं बाग़ी हूँ और बाग़ी ही रहूँगा,
सच्चाई की राह पर चलते हुए खुद को साबित करूँगा।

ना तिजारत की ऊँचाइयों में खो जाऊँगा,
ना फरेब के बाज़ार में बिक के आऊँगा।।

मैं बाग़ी हूँ और बाग़ी ही रहूँगा,
अपनी पहचान, अपने रास्ते पर अडिग रहूँगा।

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गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले

क़फ़स उदास है यारो सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहर-ए-ख़ुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले

कभी तो सुब्ह तिरे कुंज-ए-लब से हो आग़ाज़
कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्क-बार चले

बड़ा है दर्द का रिश्ता ये दिल ग़रीब सही
तुम्हारे नाम पे आएँगे ग़म-गुसार चले

जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शब-ए-हिज्राँ
हमारे अश्क तिरी आक़िबत सँवार चले

हुज़ूर-ए-यार हुई दफ़्तर-ए-जुनूँ की तलब
गिरह में ले के गरेबाँ का तार तार चले

मक़ाम 'फ़ैज़' कोई राह में जचा ही नहीं
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले

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मिलने की तरह मुझ से वो पल भर नहीं मिलता
दिल उस से मिला जिस से मुक़द्दर नहीं मिलता

ये राह-ए-तमन्ना है यहाँ देख के चलना
इस राह में सर मिलते हैं पत्थर नहीं मिलता

हमरंगी-ए-मौसम के तलबगार न होते
साया भी तो क़ामत के बराबर नहीं मिलता

कहने को ग़म-ए-हिज्र बड़ा दुश्मन-ए-जाँ है
पर दोस्त भी इस दोस्त से बेहतर नहीं मिलता

कुछ रोज़ 'नसीर' आओ चलो घर में रहा जाए
लोगों को ये शिकवा है कि घर पर नहीं मिलता

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सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते जाते,
वर्ना इतने तो मरासिम थे कि आते जाते।

शिकवा-ए-ज़ुल्मत-ए-शब से तो कहीं बेहतर था,
अपने हिस्से की कोई शमा जलाते जाते।।

कितना आसाँ था तिरे हिज्र में मरना जानाँ,
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते जाते।

जश्न-ए-मक़्तल ही न बरपा हुआ वर्ना हम भी,
पा-ब-जौलाँ ही सही नाचते गाते जाते।।

इसकी वो जाने उसे पास-ए-वफ़ा था कि न था,
तुम 'फ़राज़' अपनी तरफ़ से तो निभाते जाते।

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ये उथल-पुथल उत्ताल लहर पथ से न डिगाने पायेगी
पतवार चलाते जायेंगे, मंजिल आयेगी-आयेगी

लहरों की गिनती क्या करना कायर करते हैं करने दो
तूफानों से सहमे जो हैं पल-पल मरते हैं मरने दो
चिर पावन नूतन बीज लिये मनु की नौका तिर जायेगी
पतवार चलाते जायेंगे …

अनगिन संकट जो झेल बढ़ा वह यान हमारा अनुपम है
नायक पर है विश्वास अटल दिल में बाहों में दमखम है
यह रैन-अंधेरी बीतेगी ऊषा जय-मुकुट चढ़ायेगी
पतवार चलाते जायेंगे …

विध्वंसों का ताण्डव फैला हम टिके सृजन के हेम -शिखर
हम मनु के पुत्र प्रतापी हैं वर्चस्वी धीरोदत्त प्रखर
असुरों की कपट कुचाल कुटिल श्रध्दा सबको सुलझायेगी
पतवार चलाते जायेंगे … ©️ जतिन त्यागी

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॥ लौ सनातन चिर जलेगा ॥

अब अमावस फिर न होगी,
अब सुधा रस फिर बहेगा,
भर गया है प्राण उर में,
लौ सनातन चिर जलेगा ।

प्रण वही, वर पूर्ण होगा,
दंभ उनका चूर्ण होगा,
तब जली थी ज्ञान - गंगा हमारी नालन्दा,
अब मनोरथ पूर्ण होगा,
याचना नहीं अब रण होगा।

यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें,
कहने वाला श्याम कहाँ मिलेगा।

हर सिया - राघव रमेगी,
नीर फिर - फिर क्यूं बहेगी,
क्यों न हर बिस्मिल कहेगा,
लौ सनातन चिर जलेगा।

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आज ठाकुर भी खुश है, जाट भी खुश है।
आज यादव भी खुश है, आज दलित भी खुश है।
आज मुस्लिम भी खुश है, बस आज * हिन्दु* निराश है!
काश्मीर भय मुक्त किया, सब बातें पल में रीत गई।
रामलला के मन्दिर की, पावन शुभ घड़ियां बीत गई।
देख आज के परिणामों को, एक बात तो सिद्ध हुई।
हिंदू हार गया भारत का और जातियां जीत गईं।- ©️जतिन त्यागी

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हे राम दुबारा मत आना
अब यहाँ लखन हनुमान नही।

सौ करोड़ इन मुर्दों में
अब बची किसी में जान नहीं।।

भाईचारे के चक्कर में,
बहनों कि इज्जत का भान नहीं।

इतिहास थक गया रो-रोकर,
अब भगवा का यहाँ अभिमान नहीं।।

याद इन्हें बस अकबर है,
राणा प्रताप का बलिदान नही।

हल्दीघाटी सुनसान हुई,
अब चेतक का तूफान नही।।

हिन्दू भी होने लगे दफन,
अब जलने को शमसान नहीं।

विदेशी धर्म ही सबकुछ है,
सनातन का अब सम्मान नही।।

हिन्दू बँट गया जातियों में,
अब होगा यूँ कल्याण नहीं।

सुअरों और भेड़ियों की,
आबादी का अनुमान नहीं।।

खतरे में हैं सिंह और शावक,
इसका उनको कुछ ध्यान नहीं।

चहुँ ओर सनातन लज्जित है,
कुछ मिलता है परिणाम नहीं।।

वीर शिवा की कूटनीति,
और राणा का अभिमान नही।

जो चिनवा दिया दीवारों में,
उन गुरु पुत्रों का सम्मान नही।।

हे राम दुबारा मत आना,
अब यहाँ लखन हनुमान नही। - ©️ जतिन त्यागी

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मुझ को गहराई में मिट्टी की उतर जाना है
ज़िंदगी बांध ले सामान-ए-सफ़र जाना है

घर की दहलीज़ पे रोशन हैं वो बुझती आंखें
मुझ को मत रोक मुझे लौट के घर जाना है

मैं वो मेले में भटकता हुआ इक बच्चा हूं
जिस के मां बाप को रोते हुए मर जाना है

ज़िंदगी ताश के पत्तों की तरह है मेरी
और पत्तों को ब-हर-हाल बिखर जाना है

एक बे-नाम से रिश्ते की तमन्ना ले कर
इस कबूतर को किसी छत पे उतर जाना है

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