धरा धन्य थी, गगन गूंजा, जब ज्योति जली अनमोल।
एक युगपुरुष ने भर दिया, भारत में नव अनुकूल।।
गांव-गांव की माटी में था, जिनके स्वेद का सन्मान।
साधारण वेश में छिपा था, नेतृत्व का नवल प्रमाण।।
अंत्योदय का जोत जलाया, हर नयनों में स्वप्न भरा।
जन-मन के हर कोने को, दीप समान उज्ज्वल किया।।
एकात्म मानववाद की, अमर ज्योति जलाने आए।
राजनीति को धर्म दिया, और स्वराज का मंत्र सुनाए।।
न सत्ता की लालसा रखी, न स्वयं को ऊँचा माना।
जनता की सेवा को ही, जीवन का सच्चा गहना जाना।।
सनातन संस्कृति का प्रहरी, नीति, धर्म का संग था।
शोषित, वंचित, पीड़ितों के, संघर्षों में रंग था।।
नभ के नक्षत्र से चमकते, उनके आदर्श, उनके स्वर।
भारत माँ की आत्मा में, अमर रहेगा यह अवतार।।
गंगा-यमुना साक्षी बनकर, उनकी गाथा गाएंगी।
जन-जन के मन मंदिर में, प्रतिमा बनकर आएंगी।।
तेरी वाणी, तेरी ज्योति, हर युग में रहे अमर।
पंडित दीनदयाल तुझे, शत्-शत् नमन यह सुमन अर्पण।। - ©️ जतिन त्यागी