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Arun Kumar Dwivedi

Arun Kumar Dwivedi

@arunkumar8938


काँपती अट्टालिकाएँ ,दरोदीवार मन्दिरोमस्जिद के ।
हमें भ्रमित कर रहे हैं ।
चुनौती दे रहे हैं हमारे अन्तर में निहित बौद्धिकता के परमाणु को ।

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कुछ लोग हमें अब भी अस्पर्श्य ही समझ रहे हैं ।

हमने कम यत्न नहीं किया ।

उनके इस व्यवहार के पीछे के रहस्य को समझने के लिए ।

इतिहास के कुछ पन्नों में लिखित सूचियों में ,

कई बार ,लगातार देखने और देखकर समझने

का करता रहा यत्न ।

शब्द कोष में इस शब्द की खोजता रहा परिभाषा और प्रयोग ।

परन्तु नहीं प्राप्त हुआ वह सुयोग ।

हाँ कल अनायास ही इस रहस्य से पर्दा उठ ही गया ।

और मैं पूरी तरह अपने अस्पर्श्य होने के रहस्य से

हो गया अवगत ।

अब मैंने सोच लिया है और कर रहा हूँ सीखने का यत्न भी ।

और साथ ही देखने का यत्न भी उन सबकी आँखों से ,

वही सबकुछ जो उनका सत्य है ।

और चुपचाप दफना रहा हूँ ।

अपने सत्य को ।

यह समझकर की भीड़ का सत्य ही स्पर्शय् और ग्रहणीय होता है ।

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ये आँखे रोई -रोई -सी
सपनों के बिखरन से ।
आतुर थी जिनको छूने को ।
वह विखर गया ,वह विचर गया ।
शताब्दियों की प्रत्याशा
कुछ शुभ -सुन्दर होगा
संस्कृति समन्वित होगी
दृश्य देख दृग सिहर गया ,ठहर गया ।
मोह पाश परिभाषाओं का ।
हृदयों के अंतर का कारक ।
वेग नदी का नीरधि के
पद प्रक्षालन से घहर गया ,ठहर गया ।

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मेरी दहाई ,जो कक्षा में सिर्फ पीछे बैठती थी।
हाजिरी के वक्त यस सर बोलकर अपनी भौतिक उपस्थिति का बोध कराती थी ।
प्रश्न करने और उत्तर देने की वाहियात प्रक्रिया से ,
हमेशा मुक्त रहने वाले लोग ।
कक्षा में स्थित दाँयी खिड़की को हमेशा ,
बंद रखने वाले लोग ।
देश के कई हिस्सों में फैल गए हैं ।
मरदाना नानक से पूँछ रहा है ,
गुरूदेव आपने ऐसा तो न कहा था ।

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संघर्षों की एक कहानी बाकी है ।
पूरब की एक भीत उठाना बाकी है ।।
अपने को स्थापित करना शेष रहा ।
द्वारे -द्वारे दीप जलाना बाकी है ।।
बिना श्रान्त हो चलते रहना ।
अभी -अभी तो बचपन गुजरा ।
अभी जवानी बाकी है ।

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लंठ न त्यागै लंठई बजै न जब तक लट्ठ ।
कूटिकै सीधा कीजिए मिलै कहूँ जो शट्ठ ।।

हम तुम्हारे शहर के सहर हो गए ।

शाम भी हो गए दोपहर हो गए ।।

चंद सिक्कों में अहसास हैं बिक गए ।

तेरे होने से हम बेखबर हो गए ।।

गहरी रातों में सिरहाने के तेरे सुख ।

आज मेरे लिए हैं जहर हो गए ।

स्वप्न में रोज मिलते है हमसे वे सब ।

जिनके ख्वाबों से हम आज फुर्र हो गए ।।

साथ होते थे तो प्यार था क्या पता ।

साथ छूटा लगा तुम तो हम हो गए ।।

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यह उत्सव आजादी का बलिदानों का परिणाम
जिसके लिए फाँसी पर झूले वीरों का सम्मान
मुट्ठी भर आंग्ल भाषा भाषी लोगों ने आकर ।
दास बनाकर लूट रहे थे छद्मवेश सौदागर ।
जन्मदायिनी माता जबचीत्कार रही थी ।
निज स्वातंत्र्य हेतु सुतों को पुकार रही थी ।
माँ के कुछ वीर सपूतों ने अनुभूत किया था ।
अक्षुण्ण रखना है हम सबको माता का अभिमान
आजादी के दीवानों ने कभी नही यह सोचा होगा ।
आजादी के नाम पर हम सब से यह धोखा होगा ।
सत्ताओं का सौदा होगा राम और रहमान में ।
दीवारें खींची जाँएगी मानव और इंसान में ।
राष्ट्र वाद की परिभाषाएं परिवर्तित हो जाएँगी।
धर्माधारित राजनीति का ही होगा गुणगान।

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मुझे बाँधना चाहते हो ।
कैद करना चाहते हो ।
मेरी अल्हड़ता को ।
मेरा रूप मर्दन तुम्हें सुख देता ही क्यों है भला ।
मैं तो तुम्हें सुखी रखने के सारे जतन करती हूँ ।
तुम्हारे स्वेद बिन्दु को सुखाने के लिए प्रतिपल
रहती हूँ आतुर ।
तुम्हें प्यासा भी एक क्षण नहीं देख सकती ।
तुम्हारे पेट भरने का हर संभव प्रयत्न करती हूँ मैं ।
परन्तु अब तुम पहले से रहे नहीं ।
तुम बहुत बदल गये हो ।
तुम चाहते हो मैं तुम्हारा दासत्व स्वीकार कर लूँ ।
एक लोभी कामुक क्षणभंगुर सत्ता के अंतःपुर का कोई कोना पकड़ लूँ ।
यह संभव नहीं है ।
यह कदापि संभव नहीं है ।
मुझे विवश मत करो ।
तुम अपनी मर्यादा को समझो ।
मेरी मर्यादाहीनता ।
प्रलय का शंखनाद है ।

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तुम मुझे पहचानने की जिद छोड़ ही दो ।
तुमसे पहले भी कई कोशिशें मर चुकी हैं ।
तुम्हारे बाद भी कुछ मरेंगी ।
तुम्हारे चेहरे की रेखाएं बता रही हैं ।
कुछ उलझन है क्या ?
रात बहुत हो चुकी है अब सो भी जाओ ।
मत सोचो कल क्या होगा ।
हाँ कल तुम खिलती हुई कलियों ,नवोढ़ कोपलों को छूना ।
और फिर मुझे बताना उस अहसास को ।
दे सकोगे क्या उसे शब्द ।
आना और बैठना नदी के पास छूना बहते जल धार को ।
अनूभूत करना और फिर बताना मुझे ।
क्या बँधे बिना छिटक गयीं अनुभूतियाँ ।
क्या मिले शब्द ।
मैं फिर मिलूँगा ,
पूछूँगा नहीं कुछ भी ।
तुम बताना यदि बता सको ।

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