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काँपती अट्टालिकाएँ ,दरोदीवार मन्दिरोमस्जिद के । हमें भ्रमित कर रहे हैं । चुनौती दे रहे हैं हमारे अन्तर में निहित बौद्धिकता के परमाणु को ।
कुछ लोग हमें अब भी अस्पर्श्य ही समझ रहे हैं । हमने कम यत्न नहीं किया । उनके इस व्यवहार के पीछे के रहस्य को समझने के लिए । इतिहास के कुछ पन्नों में लिखित सूचियों में , कई बार ,लगातार देखने और देखकर समझने का करता रहा यत्न । शब्द कोष में इस शब्द की खोजता रहा परिभाषा और प्रयोग । परन्तु नहीं प्राप्त हुआ वह सुयोग । हाँ कल अनायास ही इस रहस्य से पर्दा उठ ही गया । और मैं पूरी तरह अपने अस्पर्श्य होने के रहस्य से हो गया अवगत । अब मैंने सोच लिया है और कर रहा हूँ सीखने का यत्न भी । और साथ ही देखने का यत्न भी उन सबकी आँखों से , वही सबकुछ जो उनका सत्य है । और चुपचाप दफना रहा हूँ । अपने सत्य को । यह समझकर की भीड़ का सत्य ही स्पर्शय् और ग्रहणीय होता है ।
ये आँखे रोई -रोई -सी सपनों के बिखरन से । आतुर थी जिनको छूने को । वह विखर गया ,वह विचर गया । शताब्दियों की प्रत्याशा कुछ शुभ -सुन्दर होगा संस्कृति समन्वित होगी दृश्य देख दृग सिहर गया ,ठहर गया । मोह पाश परिभाषाओं का । हृदयों के अंतर का कारक । वेग नदी का नीरधि के पद प्रक्षालन से घहर गया ,ठहर गया ।
मेरी दहाई ,जो कक्षा में सिर्फ पीछे बैठती थी। हाजिरी के वक्त यस सर बोलकर अपनी भौतिक उपस्थिति का बोध कराती थी । प्रश्न करने और उत्तर देने की वाहियात प्रक्रिया से , हमेशा मुक्त रहने वाले लोग । कक्षा में स्थित दाँयी खिड़की को हमेशा , बंद रखने वाले लोग । देश के कई हिस्सों में फैल गए हैं । मरदाना नानक से पूँछ रहा है , गुरूदेव आपने ऐसा तो न कहा था ।
संघर्षों की एक कहानी बाकी है । पूरब की एक भीत उठाना बाकी है ।। अपने को स्थापित करना शेष रहा । द्वारे -द्वारे दीप जलाना बाकी है ।। बिना श्रान्त हो चलते रहना । अभी -अभी तो बचपन गुजरा । अभी जवानी बाकी है ।
लंठ न त्यागै लंठई बजै न जब तक लट्ठ । कूटिकै सीधा कीजिए मिलै कहूँ जो शट्ठ ।।
हम तुम्हारे शहर के सहर हो गए । शाम भी हो गए दोपहर हो गए ।। चंद सिक्कों में अहसास हैं बिक गए । तेरे होने से हम बेखबर हो गए ।। गहरी रातों में सिरहाने के तेरे सुख । आज मेरे लिए हैं जहर हो गए । स्वप्न में रोज मिलते है हमसे वे सब । जिनके ख्वाबों से हम आज फुर्र हो गए ।। साथ होते थे तो प्यार था क्या पता । साथ छूटा लगा तुम तो हम हो गए ।।
यह उत्सव आजादी का बलिदानों का परिणाम जिसके लिए फाँसी पर झूले वीरों का सम्मान मुट्ठी भर आंग्ल भाषा भाषी लोगों ने आकर । दास बनाकर लूट रहे थे छद्मवेश सौदागर । जन्मदायिनी माता जबचीत्कार रही थी । निज स्वातंत्र्य हेतु सुतों को पुकार रही थी । माँ के कुछ वीर सपूतों ने अनुभूत किया था । अक्षुण्ण रखना है हम सबको माता का अभिमान आजादी के दीवानों ने कभी नही यह सोचा होगा । आजादी के नाम पर हम सब से यह धोखा होगा । सत्ताओं का सौदा होगा राम और रहमान में । दीवारें खींची जाँएगी मानव और इंसान में । राष्ट्र वाद की परिभाषाएं परिवर्तित हो जाएँगी। धर्माधारित राजनीति का ही होगा गुणगान।
मुझे बाँधना चाहते हो । कैद करना चाहते हो । मेरी अल्हड़ता को । मेरा रूप मर्दन तुम्हें सुख देता ही क्यों है भला । मैं तो तुम्हें सुखी रखने के सारे जतन करती हूँ । तुम्हारे स्वेद बिन्दु को सुखाने के लिए प्रतिपल रहती हूँ आतुर । तुम्हें प्यासा भी एक क्षण नहीं देख सकती । तुम्हारे पेट भरने का हर संभव प्रयत्न करती हूँ मैं । परन्तु अब तुम पहले से रहे नहीं । तुम बहुत बदल गये हो । तुम चाहते हो मैं तुम्हारा दासत्व स्वीकार कर लूँ । एक लोभी कामुक क्षणभंगुर सत्ता के अंतःपुर का कोई कोना पकड़ लूँ । यह संभव नहीं है । यह कदापि संभव नहीं है । मुझे विवश मत करो । तुम अपनी मर्यादा को समझो । मेरी मर्यादाहीनता । प्रलय का शंखनाद है ।
तुम मुझे पहचानने की जिद छोड़ ही दो । तुमसे पहले भी कई कोशिशें मर चुकी हैं । तुम्हारे बाद भी कुछ मरेंगी । तुम्हारे चेहरे की रेखाएं बता रही हैं । कुछ उलझन है क्या ? रात बहुत हो चुकी है अब सो भी जाओ । मत सोचो कल क्या होगा । हाँ कल तुम खिलती हुई कलियों ,नवोढ़ कोपलों को छूना । और फिर मुझे बताना उस अहसास को । दे सकोगे क्या उसे शब्द । आना और बैठना नदी के पास छूना बहते जल धार को । अनूभूत करना और फिर बताना मुझे । क्या बँधे बिना छिटक गयीं अनुभूतियाँ । क्या मिले शब्द । मैं फिर मिलूँगा , पूछूँगा नहीं कुछ भी । तुम बताना यदि बता सको ।
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