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अभी हाल ही में अमरीकी राष्ट्रपति ने डेमोक्रेटिक पार्टी के एक कार्यक्रम में अमरीकी अर्थव्यवस्था की तारीफ़ करते हुए भारत समेत कुछ अन्य देशों को ज़ेनोफोबिक की संज्ञा देकर एक नए विवाद को जन्म दे दिया| ऑक्सफ़ोर्ड शब्दकोष के अनुसार ज़ेनोफोबिक का अर्थ है किसी भी विदेशी के प्रति नापसंदगी, परहेज़ या डर| विदेशी व्यक्ति, विदेशी भाषा, विदेशी संस्कृति इत्यादि के प्रति स्वीकार्यता का अभाव| हालाँकि विवाद होता देख, वाइट हाउस की तरफ से एक रक्षात्मक बयान भी आया जिसमे कहा गया कि राष्ट्रपति के उक्त कथन का अर्थ ये है कि अमरीकी अर्थव्यवस्था के मज़बूत होने का बड़ा कारण है कि वे अप्रवासियों का स्वागत करते हैं, वहीँ भारत, चीन, जापान जैसे देश अप्रवासियों के प्रति पूर्वाग्रह रखने के कारण उतनी तरक्की नहीं कर पाए| इस बात में कोई संदेह नहीं कि अमरीका एक अप्रवासियों का देश है, दुनिया में सबसे ज्यादा अप्रवासी अमरीका में ही रहते हैं और अमरीका की उन्नति में अप्रवासियों की बहुत अहम् भूमिका है| परन्तु एक ढाई-तीन सौ साल पहले जन्मे देश के राष्ट्रपति का सहस्त्रों वर्षों की हमारी समावेशी संस्कृति को ज़ेनोफोबिक कहना हास्यास्पद ही है| अंततः ये साबित हो गया कि पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में अमरीका का भारत के प्रति व्यवहार बदला है नज़रिया नहीं| कुछ महत्त्व हमें देने लगे क्यूंकि हम उनके लिए एक बहुत बड़ा बाज़ार हैं, एक सौ चालीस करोंड़ लोगों का बाज़ार पर मूलतः वे आज भी हमें सपेरों का देश ही समझते हैं| अमरीकी राष्ट्रपति को अगर भारत के इतिहास का ज़रा भी ज्ञान होता तो उन्हें पता होता कि शक़, हूण, कुषाण, मुग़ल से लेकर अंग्रेज़ तक इस धरती पर कभी आक्रान्ता तो कभी व्यापारी बनकर आये और इस धरती ने सबको स्वीकार कर लिया| आज़ादी के बाद से पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से शरणार्थियों का आना आज भी जारी है| रोहिंग्यायों की समस्या से अब लगभग पूरा भारत परेशान हो रहा है पर जब वो आ रहे थे हमनें उनपर तरस खाकर उन्हें आने दिया| आज आलम ये है कि पहचान करना भी मुश्किल है कि कौन रोहिंग्या है और कौन नहीं| हालाँकि गलती हमारी ही है, हमनें हमारी संस्कृति को तुच्छ मानकर अपनी संस्कृति की उपेक्षा करके अमरीकी जीवनशैली एवं उनके ब्राण्डों का इतना अधिक अनुसरण कर लिया कि वो स्वयं को हमसे श्रेष्ठ मान बैठे| खैर, अगर हम मान भी लें , कि अमरीकी राष्ट्रपति को भारतीय इतिहास और भारतीय संस्कृति की कोई जानकारी नहीं, फिर भी एक राष्ट्राध्यक्ष का किसी संप्रभु राष्ट्र की संस्कृति पर टिप्पणी करना सर्वथा अनुचित है|
आज रविवार की इत्मीनान वाली सुबह में घर की बालकनी में हल्की ठंडक के बीच गरम चाय की चुस्कियां लेते हुए अखबार पढ़ रहे थे| अन्दर के किसी चौथे पांचवे प्रष्ठ पर छपी एक छोटी सी ख़बर को पढ़ कर पहले आगे बढ़ गए| फिर लगा कि शायद कुछ ग़लत पढ़ लिया| वापस उसी खबर पर गए और फिर से ध्यान से पढ़ा “महिला ने बॉयफ्रेंड पर तेज़ाब फेंका”| यकीन नहीं हुआ| फिर पूरी खबर पढ़े तब जाकर यकीन हुआ कि गलत छपा नहीं है, सच में ऐसा हुआ है| जिस देश में हम दशकों से लड़कों द्वारा लड़कियों पर तेज़ाब फेंकने की घटनाएँ देखते सुनते आये हों, वहां ऐसी खबर किसी आश्चर्य से कम नहीं| सरकार कठोर कानून बनाकर दोषियों को सज़ा देने का प्रयास कर रही है एवं तमाम संस्थाएं पीड़ित महिलाओं के इलाज़ और पुनर्वास से सम्बंधित योजनायें चला रही हैं| किन्तु शायद वो काफी नहीं है| नागपुर की उपरोक्त घटना के पीछे का कारण स्पष्ट नहीं, किन्तु क्या उपरोक्त खबर को सुनकर लड़कों के मन में ये भय व्याप्त होगा कि अब लड़कियां भी पलट कर उनके साथ ऐसा ही कर सकती हैं| हालाँकि कानून अपने हाथ में लेने का अधिकार किसी को नहीं, किन्तु कभी कभी पलटवार होने का डर कानूनन सजा होने के डर से ज्यादा प्रभावी होता है, अपराध रोकने के लिए| सोंचियेगा ज़रूर||
हाल ही में एक फिल्म रिलीज़ हुई है “हीरामंडी”| हालाँकि मैंने वो फिल्म अब तक देखी नहीं है, लेकिन जैसा कि प्रचारित है कि ये फिल्म वेश्याओं पर आधारित है| इस विषयवस्तु पर फिल्म बनाने पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होगी क्यूंकि हम मानें या न मानें वैश्यावृत्ति हमारे समाज की एक सच्चाई है| किन्तु मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि कपड़ों के एक बड़े ब्रांड ने “हीरामंडी कलेक्शन” के नाम से कपड़ों का एक नया कलेक्शन निकाला है| विगत कई दशकों से फिल्मों के नायक-नायिकाओं द्वारा पहने गए वस्त्रों के आधार पर नया फैशन चलन में आता रहा है, किन्तु क्या ये मानसिक दीवालियापन नहीं कि संभ्रांत घरों की महिलायें किसी फिल्म में एक वैश्या द्वारा पहने गए कपड़ों से प्रेरित कपड़े पहन कर नया फैशन चलन में लायेंगी| पिछले तीस वर्षों से विभिन्न विज्ञापनों के माध्यम से समाज में स्त्रियों को सिर्फ उपभोग की वस्तु के तौर पर दिखाया गया| किसी विशेष टूथपेस्ट, परफ्यूम, शेविंग क्रीम यहाँ तक कि किसी विशेष इनरवियर का इस्तेमाल करने वाले पुरुष की ओर स्त्री कामुक होकर लोकलाज को छोड़कर भागी चली आती है| शायद धीरे धीरे स्त्रियों ने भी यह मान लिया है कि उनके चरित्रवान होने से अधिक आवश्यक है उनका उत्तेजक दिखना| ऐसे में जब समाज स्वयं स्त्रियों को देवी नहीं एक सम्भोग की वस्तु के तौर पर देखना चाहता हो, सिर्फ स्त्रियों को इसके लिए दोष देना न्यायसंगत नही होगा| हम सब इस सामजिक पतन के दोषी हैं|
वोट से नेता नहीं देश बनता है (नुक्कड़-नाटक) भारत का एक सुदूर गाँव| खेत के किनारे चार ग्रामीण भरी दुपहरी में एक विशाल नीम के वृक्ष की छाया में बैठे आपस में बात कर रहे| तभी गाँव के विद्यालय के मास्टर अपनी साइकिल से वहां पहुँचते हैं और साइकिल किनारे लगाकर अपने गमछे से मुंह पोछते हुए उनके पास बैठ जाते हैं| वाचक बोलता है “भरी दुपहरी खेत किनारे चार जने नीम तले सुस्तावत हैं, मुंह पोछ्त गमछा से मास्टरजी उनके नेरे बैठत है|” मास्टरजी पूछिन – “का हो बंधो, अबकी बिरिया कहिका जोर लागति है|” (मास्टर बोलते हैं) रज्जू कहिन – “अरे मास्टर कोनौ जीते हम सब तो बस बतवईबे, जो जितिहे आपन जितिहे हमका का दई जईहें, उई हमका का दई जईहें” (रज्जू बोलते हैं) मुन्ना कहिन- “मानौ हमरे चाचा बने सांसद तौ हवाईजहाज पर उड़ीहैं, अत्ता ऊपर उड़ने वाले हमका का पहिचनीहैं, गाँव देहात सब छोड़छाड़ कर दिल्ली मां रहि जईहें, उई हमका का दई जईहें, उई हमका का दई जईहें” (मुन्ना बोलते हैं) बल्लू कहिन- “मामा हमरे बने सांसद पैसा खूब कमाईहें, बड़े अमीरों बहुबलियों के पिछलग्गू बन जईहें, सब मिलकर बस हम जईसन का सोषण करते जईहें, उई हमका का दई जईहें, उई हमका का दई जईहें” (बल्लू बोलते हैं) कक्कू कहिन- “बहुतेरे देखे नेता यूँ आने जाने वाले, वोटों के मौसम में बनते हम सबके रखवाले, वोट लूटकर भाग जात सब केवल धोखा दईहें, आपन रोटी खुदऐ कमावेक उई हमका न दई जईहें, उई हमका का दई जईहें” (कक्कू बोलते हैं) सबका सुनिके मास्टर बोले- “बात सही सब आप कहत हो, पर बखत बदलने वाला है, सदियों के अधियारों को परकास निगलने वाला है, हम भी बदलें तुम भी बदलो देश तभी तो बदलेगा, भारत माता का परचम सारी दुनिया में फेहरेगा, क्यों डालत हो वोट तुम जात-धरम के नाम पर, चकाचौंध फ़िल्मी दुनिया या खेलकूद को मानकर, खुद देखो सोंचो और समझो कौन तुम्हारे काम का, रक्खे ध्यान सदा तुम्हारी रोटी और सम्मान का, रोज़गार पढना लिखना जो बच्चों का करवाएगा, वही हमारा नेता है आशीष देश का पायेगा, कसम हमें है भारत मां की मत सबसे डलवायेंगे, नेता क्या हम वोट से अपने देश का भाग्य बनायेंगे” (मास्टर बोलते हैं) सारे एक साथ बोलते हैं “कसम हमें है भारत मां की मत सबसे डलवायेंगे नेता क्या हम वोट से अपने देश का भाग्य बनायेंगे” “वोट से नेता नहीं देश बनता है” “वोट से नेता नहीं देश बनता है” स्वरचित- अर्जित मिश्र सीतापुर, उत्तर प्रदेश मो. 9473808236 उपरोक्त नुक्कड़ नाटक का शहरों, कस्बो, गाँवों में मंचन कर मतदान के प्रति जागरूक करने का निश्चय है| आप सबके आशीर्वाद से ये छोटा सा प्रयास सफल होगा|
ख्यातिप्राप्त पहलवान और ओलंपिक पदक विजेता बजरंग पुनिया का पेरिस ओलंपिक के लिए क्वालीफाई न कर पाना दुखद है| किन्तु जिस प्रकार वो अपने प्रतिद्वंदी से पराजित हुए वो शर्मनाक है| खेल में हार-जीत लगी रहती है किन्तु पहले बजरंग पुनिया द्वारा बिना ट्रायल दिए ओलंपिक में जाने की जिद करना फिर उनका ट्रायल में इस प्रकार रौंद दिया जाना प्रश्न तो खड़े करता ही है| हालाँकि ये बहस दशकों से चल रही है कि विभिन्न खेलों के खिलाड़ियों का अपने खेल से ध्यान हटाकर विज्ञापन के लिए मॉडलिंग करना या कोई अन्य व्यवसाय करना उचित है या नहीं| निर्विवाद सत्य ये भी है कि खिलाड़ियों का सफलता का काल-खंड बहुत छोटा होता है, उन्हें उसी समय में अपना भविष्य भी सुरक्षित करना होता है| परन्तु यहाँ ये भी समझना होगा कि अपने देश के लिए खेलना जीविकोपार्जन का साधन नहीं है, वरन कर्तव्य है देश के प्रति, उम्मीद है देशवासियों की और गर्व है अपने आप पर| खिलाड़ियों को ये समझना होगा कि उन्हें जो प्रेम, पहचान और सम्मान मिल रहा है वो उनके खेल की वजह से है इसलिए कभी भी अपने खेल से समझौता न करें|
अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश समेत भारत के कई क्षेत्रों में हुई बेमौसम बरसात, आंधी-तूफ़ान और ओलावृष्टि ने किसानों की फसलें चौपट कर दीं| कई क्षेत्रों से ऐसी तस्वीरें आयीं जहाँ गेहूं की खड़ी फसल इस मौसमी प्रकोप की शिकार होकर गिर गयी, बरबाद हो गयी| हालांकि सरकार ने अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करते हुए पीड़ित किसानों के लिए मुआवजा घोषित कर दिया, किन्तु क्या ये पर्याप्त है? क्या सरकार इसे एक दैवीय आपदा मानकर पीड़ितों को मुआवजा देकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो सकती है? ध्यान दें कि पिछले कुछ वर्षों से मौसम ने अप्रत्याशित तौर पर बदलना शुरू कर दिया है, जिसका सीधा असर हमारे देश के अन्नदाता पर पड़ रहा है| किसान बहुत मेहनत से अपने खेत में फसल उगाता है फिर अचानक एक दिन मौसमी हमला होता है और उसकी फ़सल बरबाद हो जाती है, सरकार कुछ धनराशी मुआवज़े का देकर अपनी जिम्मेदारी से खुद को मुक्त मान लेती है| लेकिन किसान के वर्षभर के लिए संजोये गए सपने उस मुआवज़े से किसी प्रकार जीवन जीने के संघर्ष में परिवर्तित हो जाते हैं| हमें समझना होगा कि हजारों वर्षों से हमारे देश का कृषि विज्ञान प्रकृति के साथ संतुलन पर आधारित है| हमारे मनीषियों ने ऋतु-चक्र पर आधारित फ़सल-चक्र का निर्धारण किया था| किस क्षेत्र में कब और कितनी बरसात होती है, किस क्षेत्र की जलवायु और मिट्टी कैसी है उसी हिसाब से कहाँ कौन सी फसल कब उगाना श्रेष्ठ होगा ये निर्धारित किया गया| आज भी हम फ़सल के जिस रबी और खरीफ के मौसम के आधार पर कृषि कार्य करते हैं वो मूलतः हमारे पुरातन ऋतु-चक्र पर आधारित फ़सल-चक्र का ही रूप है| किन्तु अब जिस प्रकार ऋतु-चक्र तेज़ी से परिवर्तित हो रहा है, हमें जल्द ही आवश्यकतानुसार उचित शोध करके अपने फ़सल-चक्र को बदलते ऋतु-चक्र के अनुसार परिवर्तित करना होगा| अच्छा होगा कि सभी राज्य सरकारें अपने-अपने राज्य में बदलते ऋतु-चक्र के कृषि पर पड़ने वाले प्रभाव का विस्तृत शोध करवाएं और उसी के अनुसार अपने क्षेत्र के किसानों को जागरूक करें एवं उनका मार्गदर्शन करें| जय किसान! जय हिन्द!
अभी हाल में ही ज्ञानवापी मामले में न्यायालय ने व्यास तहखाने में पूजा करने की अनुमति दे दी| जिसके बाद से तहखाने में पूजा अनवरत् की जा रही है| हिन्दू पक्ष इसे अपनी जीत और मुस्लिम पक्ष इसे अपनी हार समझ रहा है| परन्तु यदि इस पूरे मामले को ऐतिहासिक दृष्टि से समझा जाए, तो समझ में आएगा की ज्ञानवापी परिसर में माँ श्रृंगार गौरी का पूजन और व्यास तहखाने में पूजा/आरती तो सदियों से हो रही थी, तब भी जब देश में मुगलों का शासन था और तब भी जब अंग्रेज़ यहाँ शासक थे| स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी पूजा/आरती का ये क्रम नब्बे के दशक तक तब तक चलता रहा जब तक वोट बैंक साधने वालों के निशाने पर नहीं आ गया| इसलिए यहाँ ये समझने की आवश्यकता है कि अभी ऐसा कुछ अलग या ग़लत नहीं हो गया है| हमारे देश में सहस्त्रों वर्षों से विभिन्न धर्म/पंथ और संप्रदाय के लोग साथ रहते आये हैं| विभिन्न विचारों और विश्वासों को सम्मान देना हमारी संस्कृति का अटूट हिस्सा रहा है| ध्यान देने योग्य बात ये है कि वर्तमान में जो ज्ञानवापी या मथुरा के मामले न्यायालय में विचाराधीन हैं वो भूमि/संपत्ति से जुड़े मामले हैं, न कि धर्म से जुड़े जैसा कि दुष्प्रचारित किया जा रहा है, जिनका निर्णय उसी प्रकार कानूनी तरीके से होगा जैसे ‘अयोध्या’ का हुआ| सबसे बड़ी बात ये कि अलग-अलग धर्मों के मानने वालों का किसी एक ही भूमि पर दावा करना सिर्फ भारत में ही नहीं होता है| ‘येरुशलम’ का ही उदाहरण ले लें, जिसपर यहूदी, इसाई और मुस्लिम तीनों ही सदियों से अपना दावा करते आये हैं| तीनों ही धर्मों में जब जिस समय जो ताक़तवर हुआ उसने ‘येरुशलम’ पर कब्ज़ा कर लिया| इस क्रम में इस पवित्र शहर को अनगिनत बार तहस-नहस किया गया, परन्तु उस ख़ूनी संघर्ष के बाद भी आज तक कोई स्थायी समाधान नहीं निकल सका| ऐसे में ‘अयोध्या’ एक उदाहरण है समूचे विश्व के लिए कि इस प्रकार के संवेदनशील मामलों को शांतिपूर्ण ढंग से ही सुलझाया जा सकता है| कितना ही अच्छा हो कि हम शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की अपनी महान परंपरा को आधार बनाकर इन मामलों को स्वयं ही सुलझा लें| क्या ही सुन्दर दृश्य होगा जब ऐसी विवादित धर्मस्थल पर सभी मत/विश्वास वाले एक साथ अपने-अपने मतानुसार ख़ुदा की इबादत भी करें और ईश्वर की प्रार्थना भी|
‘बंगाल’ नाम सुनकर ही सबसे पहले ज़ेहन में आता है माँ काली का विराट रूप और ज़ायकेदार व्यंजन, सिन्दूर-खेला में एक दूसरे को सिन्दूर लगाती महिलायें और बुद्धिजीवियों की एक महान परंपरा| ‘बंगाल’ जो मध्य काल के इतिहास में एक सम्रद्ध सूबे के तौर पर जाना जाता रहा यहाँ तक कि अंग्रेजों ने भी बंगाल को ही हिन्दुस्तान में ब्रिटिश शासन का केंद्र बिंदु बनाया| ‘बंगाल’ जहाँ के विचारकों और बुद्धिजीवियों ने समाज में व्याप्त कुरीतियों के विरुद्ध चेतना जाग्रत कर राष्ट्र का पथ प्रदर्शित किया| ‘बंगाल’ जहाँ विदेशी शासन के विरुद्ध क्रांति की ऐसी मशाल जली, जिसने समूचे राष्ट्र को स्वतंत्रता से प्रकाशित किया| उसी ‘बंगाल’ में आज अराजकता का माहौल दिखता है, खून-खराबा दिखता है, तोड़-फोड़ और आगज़नी दिखती है| ‘बंगाल’ से सम्बंधित लगभग हर न्यूज़ चैनल पर दिखायी गयी ख़बर या समाचार-पत्र में प्रकाशित समाचार में हत्या, लूटपाट, आगज़नी ही होती है| ऐसा लगता है जैसे ‘बंगाल’ दो राजनीतिक दलों का युद्ध क्षेत्र बन गया हो| जैसे इस राजनीतिक युद्ध के अतिरिक्त ‘बंगाल’ में कुछ होता ही नहीं है| माना जा सकता है कि जानबूझकर ‘बंगाल’ से सम्बंधित सिर्फ अराज़कता की ख़बरें दिखाई जा रही हों, परन्तु अगर ऐसी घटनाएँ हो रही हैं तो ये बचाव का बहाना नहीं बन सकता| इधर कुछ समय से सरकारी अधिकारीयों खासकर केन्द्रीय सरकार के अधिकारीयों के साथ मारपीट की घटनाएँ एवं उन्हें उनके कर्त्तव्य का निर्वहन न करने देने की घटनाएं देखकर तो ऐसे लगने लगा है जैसे ‘बंगाल’ देश का हिस्सा ही न हो| हद तो तब हो गयी जब माँ काली के उपासक ‘बंगाल’ में संदेशखाली जैसी घटना हो गयी और वो भी एक महिला मुख्यमंत्री के होते हुए| जहाँ एक व्यक्ति जो उस क्षेत्र का बेताज बादशाह कहा जाता है, जिसने उस क्षेत्र के लोगों की ज़मीने हड़प लीं, वो लम्बे समय तक संदेशखाली की महिलाओं का यौनशोषण करता रहा और सरकार और प्रशासन को इसकी भनक भी नहीं लगी| इस मामले का खुलासा होने पर भी सरकार ऐसी किसी घटना से लगातार इनकार कर रही है| यहाँ तक कि सरकार द्वारा ही खुले तौर पर शोषित महिलाओं पर दबाव बनाया जाने लगा| मनुस्मृति में एक श्लोक है “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता| यत्रेयास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः” अर्थार्त “जहाँ नारी की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं, और जहाँ नारियों की पूजा नहीं होती है वहां समस्त क्रियाएं (अच्छे से अच्छे कर्म) निष्फल हो जाते हैं| इस महान संस्कृति में पले-बढ़े हम भारतीय किसी नारी का अपमान कैसे कर सकते हैं| सच जो भी हो, अगर आरोप लगे हैं, तो सरकार की जिम्मेदारी है कि इस मामले की निष्पक्ष जांच हो एवं दोषियों को राजनीतिक संरक्षण न मिले, उन पर कठोर कार्यवाही हो| तब तक सरकार उन शोषित महिलाओं को सुरक्षा का भरोसा तो दिला ही सकती है, एक महिला मुख्यमंत्री से कम से कम महिलाओं के प्रति इतनी संवेदना की अपेक्षा तो की ही जा सकती है|
कभी किसी ने सोंचा नहीं होगा कि एक नगर के मेयर के स्तर का चुनाव भी राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बन सकता है| परन्तु ये अप्रत्याशित घटना हुई चंडीगढ़ में जहाँ मेयर चुनाव के दौरान चुनाव अधिकारी पर ही पक्षपात का आरोप लगा| आरोप है कि चुनाव अधिकारी ने स्वयं मतपत्र विकृत करके एक पक्ष को जिता दिया| मामला बढ़कर सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा, जहाँ अभी मामला विचाराधीन है| न्यूज़ में बताया जा रहा है कि जल्द ही न्यायालय से या तो पुनर्मतदान का आदेश दिया जाएगा या मतपत्रों का निरीक्षण एवं गिनती करके परिणाम घोषित किया जाएगा| हालाँकि ऐसा कोई पहली बार नहीं हो रहा कि चुनाव सम्बंधित मामले में न्यायलय को आदेश देना पड़ रहा हो| कभी मतदान में गड़बड़ी, कभी मतगणना में गड़बड़ी, कभी सबसे अधिक सीट जीतने वाली पार्टी को सरकार बनाने का मौका न मिलना, जैसे अनेक मामलों में न्यायालय को आदेश देना पड़ा| परन्तु क्या एक लोकतान्त्रिक देश में चुनाव सम्बंधित मामलों में न्यायालय जाने की आवश्यकता पड़नी चाहिए? लोकतंत्र में सबसे बड़ा फैसला जनता का होता है, क्या जनता के फैसले को अदालती मुहर की आवश्यकता पड़नी चाहिए? क्यों हम अपनी चुनावी हार को बर्दाश्त नहीं कर पाते? क्यों हम चुनावी जीत के लिए सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग करने से नहीं हिचकते? क्यों हम जनता जनार्दन के निर्णय को स्वीकार नहीं कर पाते? स्पष्ट है कि हम 70 वर्षों बाद भी चुनाव प्रणाली की निष्पक्षता पर समग्र रूप से जनता का एवं राजनीतिक दलों का विश्वास नहीं बना पाए हैं| और चंडीगढ़ जैसी घटनाएँ जहाँ चुनाव अधिकारी पर ही पक्षपात का आरोप है, विश्वास होने भी नहीं देंगीं|
आज कल दुनिया भर में वैलेंटाइन्स वीक मनाया जा रहा है| आज की पीढ़ी को शायद न पता हो कि हिंदुस्तान में वैलेंटाइन्स डे मनाने की शुरुआत नब्बे के दशक में हुई| जब फिल्मों के माध्यम से इसके बारे में लोगों को जानकारी मिली| खासकर शाहरुख़ खान की रोमांटिक फिल्मों से| एक बहुत मशहूर फिल्म है “मोहब्बतें” जिसमें वैलेंटाइन्स डे के बारे में ये बताया गया कि इस दिन अगर कोई लड़का किसी लड़की से प्रणय निवेदन करेगा तो इस दिन वो लड़की बुरा नहीं मानेगी और उसके प्रेम को स्वीकार कर लेगी| बेहद शर्मनाक तरीके से परिभाषित किया गया इस दिन को जैसे किसी लड़की की कोई पसंद नापसंद हो ही नहीं सकती| इस दिन उसे हर प्रणय निवेदन को स्वीकार करना ही होगा| कहते हैं कि वैलेंटाइन्स डे प्रेम के दिवस के रूप में एक संत वैलेंटाइन के नाम पर दुनिया भर में मनाया जाने लगा| अगर हम इस कहानी को सत्य भी मानें तो भी उसके मूल में प्रेम है| प्रेम जो कि एक नैसर्गिक भावना है जिसे किसी दिन विशेष में बाँधा नहीं जा सकता| न ही किसी भी प्रकार के दबाव में प्रेम पनप सकता है| वैसे प्रेम को समझने के लिए हमें तो किसी आयातित कहानी या दिवस की आवश्यकता ही नहीं| हमारी सभ्यता हमारी संस्कृति का मूल तत्व ही प्रेम है, जिसमें समस्त मानवजाति, जीव जंतु के साथ प्रकृति से भी प्रेम को उल्लेखित किया गया है| हज़ारों वर्षों से हम राधा-कृष्ण के प्रेम को पूजते आये हैं| राधा-कृष्ण का आपस में विवाह नहीं हुआ था फिर भी हमारे समाज ने उनके प्रेम को स्वीकार किया क्यूंकि उनका प्रेम शाश्वत है पवित्र है| इसी प्रकार भगवान् राम भी माता सीता का हरण हो जाने पर व्याकुल होकर उन्हें पहाड़ों, जंगलों में ढूँढ़ते हैं| माता सीता का त्याग कर देने पर भी भगवान् राम दूसरा विवाह नहीं करते एवं माता सीता के प्रेम में ही अपना जीवन व्यतीत कर देते हैं| भगवान् शिव भी माता सती द्वारा दाह किये जाने के बाद उनकी जली हुई देह लेकर तीनों लोकों में विचरते हैं| जबकि भगवान् शिव त्रिकालदर्शी हैं महायोगी है, मानवीय संवेदनाओं से बहुत ऊपर हैं, फिर भी वो अपनी शक्ति को अपने प्रेम को महत्त्व देते हैं| इसी प्रकार हमारी सभ्यता हमारे इतिहास में अनेक उदाहरण हैं जहाँ लोगों ने प्रेम को अपने जीवन में सबसे महत्वपूर्ण स्थान दिया है| फिर भी यदि किसी संभ्यता में कुछ अच्छा है तो उसे अपनाना उचित ही है| वैलेंटाइन्स डे या वीक मनाने में कुछ भी अनुचित नहीं है| यदि आप किसी विशेष दिन अपने प्रेमी/प्रेमिका को कुछ अलग एहसास कराना चाहते हैं, तो वैलेंटाइन्स डे अवश्य मनाएं| किन्तु प्रेम को अवश्य समझें| ख़ुद से ये प्रश्न अवश्य करें, कि कौन है मेरा वैलेंटाइन| जो आपके साथ घूमे-फिरे, खाए-पिए, फिल्म देखे, मौज-मस्ती करे या वो जो आपको सुने-समझे, आपकी फिक्र करे, आपको संभाले, जिसके साथ आप पूर्णता का अनुभव करो, जो आपके व्यक्तित्व को निखारे, आपके भविष्य को सुधारे| निर्णय आपको करना है| जय राधा-कृष्ण जय सिया-राम
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