कभी किसी ने सोंचा नहीं होगा कि एक नगर के मेयर के स्तर का चुनाव भी राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बन सकता है| परन्तु ये अप्रत्याशित घटना हुई चंडीगढ़ में जहाँ मेयर चुनाव के दौरान चुनाव अधिकारी पर ही पक्षपात का आरोप लगा| आरोप है कि चुनाव अधिकारी ने स्वयं मतपत्र विकृत करके एक पक्ष को जिता दिया| मामला बढ़कर सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा, जहाँ अभी मामला विचाराधीन है| न्यूज़ में बताया जा रहा है कि जल्द ही न्यायालय से या तो पुनर्मतदान का आदेश दिया जाएगा या मतपत्रों का निरीक्षण एवं गिनती करके परिणाम घोषित किया जाएगा|
हालाँकि ऐसा कोई पहली बार नहीं हो रहा कि चुनाव सम्बंधित मामले में न्यायलय को आदेश देना पड़ रहा हो| कभी मतदान में गड़बड़ी, कभी मतगणना में गड़बड़ी, कभी सबसे अधिक सीट जीतने वाली पार्टी को सरकार बनाने का मौका न मिलना, जैसे अनेक मामलों में न्यायालय को आदेश देना पड़ा|
परन्तु क्या एक लोकतान्त्रिक देश में चुनाव सम्बंधित मामलों में न्यायालय जाने की आवश्यकता पड़नी चाहिए? लोकतंत्र में सबसे बड़ा फैसला जनता का होता है, क्या जनता के फैसले को अदालती मुहर की आवश्यकता पड़नी चाहिए? क्यों हम अपनी चुनावी हार को बर्दाश्त नहीं कर पाते? क्यों हम चुनावी जीत के लिए सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग करने से नहीं हिचकते? क्यों हम जनता जनार्दन के निर्णय को स्वीकार नहीं कर पाते?
स्पष्ट है कि हम 70 वर्षों बाद भी चुनाव प्रणाली की निष्पक्षता पर समग्र रूप से जनता का एवं राजनीतिक दलों का विश्वास नहीं बना पाए हैं| और चंडीगढ़ जैसी घटनाएँ जहाँ चुनाव अधिकारी पर ही पक्षपात का आरोप है, विश्वास होने भी नहीं देंगीं|