Krishna–Arjuna in Hindi Motivational Stories by Raj Phulware books and stories PDF | कृष्ण–अर्जुन

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कृष्ण–अर्जुन


⭐ कृष्ण–अर्जुन 



कुरुक्षेत्र का युद्ध समाप्त हो चुका था।
घोड़ों की हिनहिनाहट, रथों की गड़गड़ाहट,
तीरों की वर्षा और रणभूमि की गर्जना—
सब इतिहास बन चुके थे।

लेकिन अर्जुन के भीतर
एक ऐसी वीरानगी बन चुकी थी
जो किसी भी युद्ध से अधिक भयावह थी।

महल में उत्सव था,
राज्य पुनर्निर्माण की चर्चा थी,
पर अर्जुन के भीतर
एक मौन का साम्राज्य खड़ा था।

वह रातों को छत पर बैठकर
गांडीव को देखता और सोचता—

“अगर विजय ही सब कुछ थी,
तो दिल इतना खाली क्यों है?”

कृष्ण सब देख रहे थे।
अर्जुन की बेचैनी उनके लिए अनदेखी नहीं थी।


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⭐ अध्याय 1 — अर्जुन का टूटा हुआ मन

गंगा के तट पर ढलती शाम का प्रकाश
अर्जुन की आँखों में उतर रहा था।
जल पर तैरते दीपों की चमक
उसे अंदर से चुभ रही थी।

वह कृष्ण से बोला—

“केशव…
आपने मुझे धर्म बताया,
साहस दिया,
पर यह जो अंदर का शोर है…
इसका क्या?”

कृष्ण ने गहरी साँस ली।
उनकी आँखें दया से भरी थीं।

“पार्थ,
युद्ध में मनुष्य दूसरों को जीतता है।
पर शांति में उसे स्वयं को हराना पड़ता है।
और तुम अभी तक स्वयं को नहीं जीत पाए।”

अर्जुन चुप रहा।
उस मौन में वह बच्चा था—
जिसे अभी भी शिक्षक की तलाश थी।

कृष्ण ने कहा—

“चलो पार्थ,
अभी एक आखिरी पाठ बाकी है।”


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⭐ अध्याय 2 — गाँव की ओर यात्रा

अगली सुबह एक साधारण रथ तैयार हुआ।
ना कोई सैनिक, ना कोई दास।
सिर्फ कृष्ण और अर्जुन।

अर्जुन ने पूछा—

“कहाँ जा रहे हैं?”

कृष्ण मुस्कुराए—

“वहाँ, जहाँ तुम स्वयं को पहचानोगे।”

यात्रा शांत थी।
राजमहल दूर होता गया,
कुरुक्षेत्र की रक्त-स्मृति पीछे छूटती गई,
और सामने प्रकृति का सरल संसार खुल गया।

कृष्ण मंत्र की तरह बोले—

“पार्थ,
कभी-कभी उत्तर महलों में नहीं,
मिट्टी में मिलते हैं।”

अर्जुन ने पहली बार
अपना बोझ थोड़ा हल्का महसूस किया।


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⭐ अध्याय 3 — गाँव का पहला पाठ

गाँव छोटा था,
मिट्टी की सुगंध और गायों की घंटियाँ
मानो किसी दूसरी दुनिया का संगीत थी।

अर्जुन के मन में प्रश्न था—
“हम यहाँ क्यों आए?”

तभी कृष्ण ने सामने इशारा किया।

एक बूढ़ा किसान
अपनी गाड़ी को कीचड़ से निकालने की
बार-बार कोशिश कर रहा था।
उसके हाथ काँप रहे थे,
लेकिन हार नहीं मान रहा था।

कृष्ण ने कहा—

“पार्थ, जाओ। मदद करो।”

अर्जुन आगे बढ़ा।
अपने युद्ध के समान बल से गाड़ी खींची—
पर पहिया हिला भी नहीं।

अर्जुन चिढ़कर बोला—

“यह कैसे नहीं निकलेगी?
मैं इंद्र तक को परास्त कर आया हूँ!”

कृष्ण शांत हँसे।

“इंद्र को हराना आसान है,
अहंकार को हराना कठिन।”

कृष्ण खुद गाड़ी के पास गए।
उन्होंने मिट्टी हटाई,
पत्थर निकाले,
और किसान से बोले—

“अब श्वास संभालकर मेरे साथ खींचो।”

कुछ ही क्षणों में
गाड़ी बाहर आ गई।

अर्जुन निशब्द था।
कृष्ण बोले—

“पार्थ,
तुमने हमेशा शक्ति को हथियार समझा।
पर सही दिशा, सही बुद्धि
शक्ति से बड़ी होती है।”

पहली बार अर्जुन के भीतर
अहंकार की दीवार टूटने लगी।


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⭐ अध्याय 4 — गाँव में बीते दिन

अर्जुन कभी गाँव के तालाब किनारे बैठता,
कभी मछुआरों से बातें करता,
कभी बच्चों को धनुर्विद्या सिखाता।

धीरे-धीरे वह देख रहा था—
ये लोग बिना अस्त्र-शस्त्र के भी
कितने संतुष्ट हैं।

एक दिन अर्जुन ने कहा—

“केशव,
इनके पास कुछ नहीं,
फिर भी ये कितने शांत हैं।”

कृष्ण ने उत्तर दिया—

“पार्थ,
शांति साधनों से नहीं मिलती—
संतोष से मिलती है।”

अर्जुन ने यह बात
पहली बार वास्तव में समझी।


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⭐ अध्याय 5 — युवा की चुनौती

एक दिन गाँव में शोर हुआ।

एक युवा धनुर्धर
अर्जुन के सामने आया और बोला—

“तुम युद्ध के महान नायक हो।
पर मैं भी तुम्हें हरा सकता हूँ!”

अर्जुन पहले तो चौंका,
फिर मुस्कुराते हुए बोला—

“मुझे हारने में कोई भय नहीं,
पर पहले बताओ—
तुम युद्ध क्यों करना चाहते हो?”

युवा चुप।
उसने उत्तर नहीं दिया।

कृष्ण ने धीरे से कहा—

“देखा पार्थ?
अधिकतर लोग युद्ध इसलिए नहीं करते
क्योंकि सत्य की खोज है…
पर इसलिए करते हैं
क्योंकि अहंकार को भूख है।”

अर्जुन को अपना चेहरा
उस युवक में दिखा—
युद्ध से पहले वाला उसका स्वयं।


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⭐ अध्याय 6 — कुरुक्षेत्र से बड़ा युद्ध

जब गाँव की एक वृद्धा बीमार पड़ी,
अर्जुन कई दिनों तक उसकी सेवा में लगा रहा।

कृष्ण ने उसे देखा और पूछा—

“थक नहीं रहे पार्थ?”

अर्जुन मुस्कुराया—

“नहीं केशव।
युद्ध के घावों से ज़्यादा
इन छोटे कामों में सुख मिलता है।”

कृष्ण बोले—

“यही तो शांति का मार्ग है।
धर्म का अर्थ बल नहीं—
कर्तव्य है।”

अर्जुन का हृदय
हल्का होने लगा।


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⭐ अध्याय 7 — द्वारका का कालांत

कुछ महीनों बाद कृष्ण बोले—

“चलो पार्थ।
अब हमें लौटना है।”

अर्जुन बोला—

“केशव,
अब मैं वह अर्जुन नहीं हूँ
जो युद्ध के बाद टूटा हुआ था।”

कृष्ण मुस्कुराए—

“यही तो बाकी था।
स्वयं को पहचानना।”

पर जब दोनों द्वारका पहुँचे—
अर्जुन का संसार थम गया।

समुद्र नगर को निगल रहा था।
वृद्ध, जवान, बच्चे—
सभी समुद्र में समाते जा रहे थे।

अर्जुन हड़बड़ाकर बोला—

“केशव! यह क्या हो रहा है?”

कृष्ण ने शांत चेहरे से कहा—

“समय पूर्ण होता है, पार्थ।
जिसका जन्म है, उसका अंत भी है।”

अर्जुन के आँसू रुक नहीं रहे थे।


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⭐ अध्याय 8 — कृष्ण का अंतिम संदेश

एक रात कृष्ण अर्जुन को
वन में एक पुराने पीपल के नीचे ले गए।

कृष्ण बोले—

“पार्थ…
अब मेरा समय भी समाप्त होता है।”

अर्जुन कांप गया।

“नहीं केशव!
आपके बिना मैं कुछ भी नहीं!”

कृष्ण ने उसका हाथ पकड़ लिया।

“नहीं पार्थ।
मैं कभी जाता नहीं।
मैं श्वास में रहूँगा,
ध्यान में रहूँगा,
गीता की हर पंक्ति में रहूँगा।”

अर्जुन रो पड़ा।

इसी रात एक तीरविद्ध घटना में
कृष्ण का देह-त्याग हुआ।

अर्जुन ने उन्हें गोद में लिया,
माथा चूमा
और टूट गया।


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⭐ अध्याय 9 — अर्जुन की अंतिम समझ

कृष्ण के जाने के बाद
अर्जुन की सारी दिव्य शक्तियाँ समाप्त होने लगीं।

अवन्तिका में डाकुओं से लड़ते समय
उसके बाण निष्फल हो गए।

वह समझ गया—

“मेरे बाण नहीं चलते थे…
कृष्ण चलता था।”

उसने गांडीव को नदी में प्रवाहित किया
और आँसू पोंछकर कहा—

“केशव…
अब मैं वही करूँगा
जो आपने सिखाया—
स्वयं को जीतना।”


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⭐ अंतिम अध्याय — कृष्ण की गीता का अमर होना

अर्जुन अपना अंतिम जीवन
हिमालय की ओर बढ़ते हुए बिताने लगा।
यात्रा कठिन थी—
पर मन शांत था।

कभी-कभी हवा में
उसे कृष्ण की बांसुरी की धुन सुनाई देती,
और वह मुस्कुरा उठता।

वह धीरे से कहता—

“आप गए नहीं केशव…
आप तो मेरे भीतर बस गए।”

और इसी शांत स्मृति के साथ
अर्जुन ने जीवन का अंतिम सत्य पाया—

युद्ध बाहरी नहीं,
भीतरी होता है।
शक्ति अस्थायी है,
पर ज्ञान अमर।
कृष्ण शरीर नहीं थे—
वह प्रकाश थे, जो कभी बुझता नहीं।”

अर्जुन ने आँखें बंद कीं।
उसके होंठों पर बस एक शब्द था—

“केशव…”

और कहानी यहीं
अनंत शांति में पूर्ण होती है।