🌑 कर्मा
✍️ लेखक राज फुलवरे
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1. शहर, अंधेरा और एक ठग
शहर की एक पुरानी, बिखरी हुई बस्ती। गलियों में धुएँ की महक, चाय की भाप में मिलती हँसी, और कहीं दूर से आती भोंपू की आवाज़ें। दिन छोटे और रातें लंबी लगती थीं। लोग काम पर निकलते तो थके मन और सूखे सपनों के साथ लौटते। इन्हीं गलियों में रहता था एक युवक — विशाल।
विशाल का चेहरा तेज़, आँखें चौकन्नी। चाल में वो फुर्ती थी जो चोरों में होती है। लोग उसे साधारण लड़का समझते लेकिन उसकी रातें अलग थीं। उसका पेशा — जेब काटना।
और इस काम में वह इतना माहिर था कि कई चोर उससे सीखने आते। मगर उसकी खासियत अलग थी — वह चोरी "दया" लेकर करता था।
हाँ, दया!
2. अंधेपन का मुखौटा
विशाल एक काला चश्मा पहनता, हाथ में सफ़ेद लाठी, चेहरे पर बेचारगी की परत।
लोग देखते तो तुरंत मन पसीज जाता।
“बेचारा… देखने में असमर्थ होगा।”
यही सहानुभूति उसका हथियार बनती। वह किसी भी राह चलते व्यक्ति से टकराता,
“भैया… बस स्टैंड जाना है, क्या थोड़ा सहारा देंगे?”
और जैसे ही इंसान पास आता, उसका पर्स बिना आहट जेब में सरक जाता।
कई बार लोग पकड़ भी लेते, पर उसका अभिनय ऐसा कि खुद ही उसे छोड़ देते।
कभी रोने लगता, कभी दया दिखाकर कहता,
“भैया मैं क्या करू, पेट भी भरना है, भीख नहीं मांगता, गलती हो गई।"
लोग नरम पड़ जाते।
वो हँसते हुए आगे बढ़ता —
"दुनिया भावनाओं पर चलती है, और मैं उन्हीं भावनाओं से खेलता हूँ।"
उसकी रातें बीयर और ताश में गुजरतीं।
विशाल सोचता —
“पकड़ा भी जाऊँ तो क्या? अंधा हूँ कहकर बच ही जाऊँगा।”
उसे मालूम नहीं था कि कर्म का पहिया धीमे मगर निश्चित घूम रहा है।
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3. मेघराज का प्रवेश
शहर में ही रहते थे मेघराज।
साफ दिल, सीधे शब्द, और समाज में सम्मानित।
लोग उनकी मदद, उनके आचरण और उनके विचार की वजह से उन्हें गुरु मानते।
उनका एक विश्वास मशहूर था:
> "इंसान को नहीं मारो, उसके भीतर की बुराई को मारो।"
एक दिन चौराहे पर खड़े मेघराज ने विशाल को देखा।
विशाल ने एक वृद्ध का पर्स चुरा कर अपने कुर्ते में सरका दिया।
मेघराज काफी देर तक चुपचाप देखते रहे।
उनके चेहरे पर गुस्सा नहीं, चिंता थी।
"कितना तेज़ दिमाग है इस लड़के का… अगर यही समझ अच्छी दिशा में जाए तो?"
घर लौटे तो सारी रात इसी सोच में रहे।
उन्होंने ठान लिया कि वे इस लड़के की परीक्षा लेंगे — उसे पकड़ने नहीं, बदलने के लिए।
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4. पहली भेंट
दूसरे दिन मेघराज भीड़ में खड़े हुए।
जेब में अपना नया चमकदार बटुआ रखा, जिसे बाहर निकालकर जानबूझकर आधा बाहर छोड़ा।
दूर विशाल आया।
आज भी वही काला चश्मा, वही अभिनयपूर्ण चेहरे का भाव।
विशाल मन ही मन बोला,
“आज तो बड़ा शिकार मिला लगता है।”
वह धीरे चोरी कर चुपचाप निकल गया।
मेघराज मुस्कुराए।
कर्म का बीज डाल दिया गया था, अब परिणाम समय देगा।
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5. दुर्घटना — कर्म का पलटवार
तीन दिन बाद।
तेज़ बारिश, फिसलन भरी सड़क और दौड़ता हुआ ट्रैफिक।
विशाल सड़क पार कर रहा था, कान में संगीत, दिमाग पैसे पर।
तभी एक कार तेज़ी से आई।
हॉर्न की आवाज़ — पर तब तक देर हो चुकी थी।
धड़ाम!!!
शरीर हवा में उछला, फिर ज़मीन से टकरा कर फिसल गया।
लोग इकट्ठे हुए, कोई बोला “एंबुलेंस बुलाओ”, कोई वीडियो बनाने लगा।
जीवन अचानक तमाशा बन जाता है।
अस्पताल में जब आँखें खुलीं, सब काला था।
वह घबरा कर चिल्लाया,
“लाइट चालू करो! अंधेरा क्यों है?”
डॉक्टर ने गहरी साँस लेकर कहा,
> “आपकी आँखें खराब हो गई हैं।
क्षमा करें… अब आप देख नहीं पाएँगे।”
वो पल विशाल की आत्मा को चीर गया।
“मैंने सिर्फ़ अभिनय किया था…
अब सच में अंधा कैसे हो गया?”
कर्म ने आज हिसाब बराबर कर दिया था।
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6. तिरस्कार और अकेलापन
अस्पताल से निकला तो दुनिया बदल चुकी थी।
जो लोग पहले दया करके मूर्ख बनते थे,
आज वही मुंह फेर रहे थे।
किसी ने व्यंग्य किया,
“किया का फल मिला! भगवान ने आँखें छीन लीं।”
चोरों की टोली ने भी उसे अपनाया नहीं।
वे बोले,
“अंधे को साथ रखकर क्या मिलेगा? अब तो बोझ है।”
घर भी उसके लिए शरण नहीं रहा।
परिवार ने कहते हुए दरवाज़ा बंद किया,
"तेरे कर्म का फल है ये, हम पर बोझ मत बन।”
विशाल फुटपाथ पर रोता रहा।
बारिश उसके चेहरे पर नहीं, दिल पर गिर रही थी।
वह बुदबुदाया,
"काश मुझे एक मौका और मिले… मैं सब बदल दूँगा।”
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7. रोशनी का हाथ
उसी समय एक परिचित आवाज़ आई —
“विशाल…”
वह सिसकते हुए बोला,
“कौन…?”
“मैं मेघराज।”
विशाल चौंका,
“आप… आप मुझे क्यों सहारा दे रहे हैं?”
मेघराज ने उसका हाथ थामा,
“क्योंकि मैं जानता हूँ कि हर चोर के भीतर भी इंसान सोता है।
और जब तक कोई उसे जगाए नहीं… बदलाव कैसे आएगा?”
उन्होंने उसे अपने घर ले जाकर नहलाया, खाना खिलाया।
मेघराज:
> “गलती किससे नहीं होती? पर ज़रूरी यह है कि इंसान सीख ले।”
विशाल:
> “मैं लायक नहीं हूँ साहब… आपने ही देखा था कि मैं…”
मेघराज:
> “मैंने देखा था कि तुम चतुर हो।
दिमाग तेज़ है।
बस दिशा गलत है।
आओ — मैं दिशा बदलने में तुम्हारी मदद करूँगा।”**
विशाल रो पड़ा।
वह इंसान जिसे उसने लूटा, वही आज सबसे बड़ा सहारा था।
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8. नई शुरुआत
मेघराज ने उसे अपने छोटे उद्योग में काम देने का निश्चय किया।
वह सबके सामने बोले,
“यह अब चोरी नहीं करेगा।
यह मेहनत से कमाएगा।
मैं इसकी गारंटी लेता हूँ।”
शुरू के दिन कठिन थे।
अंधा होकर काम…
हर कदम किसी पर निर्भर।
वह बार-बार गिरता, चीजें गिरा देता।
दोस्त मज़ाक बनाते,
“चोर अब मजदूर बनेगा?”
लेकिन हर रात मेघराज उसे हिम्मत देते,
“धीरे-धीरे सब सीखोगे।
टूटो मत, क्योंकि नया बनने के लिए टूटना ज़रूरी है।”
विशाल के भीतर का अंधकार रोशनी में पिघलने लगा।
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9. परिवर्तन की यात्रा
समय बीता।
हाथ से महसूस कर पैकिंग, चीजें व्यवस्थित करना, मशीनों के बटन पहचानना —
सब उसने सीखा।
अब वह काम में माहिर हो गया।
लोग सोचते,
“ये वही विशाल है जो पहले जेब काटता था?”
अब वह खुद नए मजदूरों को सिखाता —
“गलत रास्ता आसान होता है…
पर सही रास्ता इज़्ज़त देता है।”
उसे अपनी पहली मेहनत की तनख्वाह मिली।
वह नोट मेघराज के पैरों में रखकर बोला,
“मैं यह आपके कारण कमा सका हूँ।”
मेघराज ने नोट उठाकर उसकी हथेली में रखा,
“नहीं बेटा, ये तेरी मेहनत का फल है।”
विशाल के दिल में पहली बार सम्मान की खुशबू आई।
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10. समाज का बदला नजरिया
गाँव और शहर के लोग अब उसे सम्मान देने लगे।
कोई रास्ता पूछता, कोई अस्पताल ले जाने कहता —
और विशाल मदद करता।
अब वह दूसरों की आँखें बन चुका था।
एक दिन मंदिर में किसी की जेब कट गई।
लोग चारों ओर शोर कर रहे थे।
विशाल ने आवाज़ पहचान ली —
पुराना गिरोह!
वह आगे बढ़ा,
“मैं जानता हूँ इनकी चाल… इन्हें पकड़ो!”
उसने चोर को पकड़वाया।
लोग चौंक गए —
पहले जेब काटने वाला आज जेब बचा रहा था।
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11. चरम और आत्मज्ञान
शाम को छत पर बैठकर वह मेघराज से बोला,
“जीवन में पहली बार सुकून है साहब…
पहले पैसे थे पर मन में शांति नहीं।
अब आँखें नहीं, पर आत्मा में रोशनी है।”
मेघराज मुस्कुराए।
“कर्मा बेटा…
चोरी से मिला पैसा,
चोरी से ही चला जाता है।
लेकिन सच की कमाई कभी ख़ाली नहीं जाती।”
विशाल ने सिर झुकाकर कहा,
“आपने मुझे सज़ा नहीं दी…
बल्कि सुधरने का अवसर दिया।
अगर हर बुराई पर पत्थर फेंका जाए,
तो इंसान नहीं बचता।”
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12. एक वर्ष बाद — पुनर्जन्म
1 साल बाद शहर में बड़ा समारोह हुआ।
समाज सेवा में योगदान के लिए एक नाम बुलाया गया —
"श्री विशाल —
जो अब अपनी कमाई से अंधों की शिक्षा और इलाज में दान करते हैं।"
पूरे हाल में तालियों की गड़गड़ाहट।
विशाल मंच पर चढ़ा तो आँसू गालों पर ढलक पड़े।
वह बोला,
> “मैंने दूसरों की जेबें काटीं,
किस्मत ने मेरी आँखें काट दीं।
मगर मैं गिरा नहीं… क्योंकि मुझे किसी ने थामा।
आज मैं अंधा हूँ,
लेकिन अब मुझे रास्ता दिखता है।”
और उसने मेघराज की ओर हाथ बढ़ाया,
“मेरे लिए आप देवता नहीं…
इंसानियत का चेहरा हैं।”
पूरे हॉल में खड़े होकर तालियाँ बजती रहीं।
कर्म का चक्र पूरा हुआ था —
चोरी से विनाश,
विनाश से जागृति,
जागृति से पुनर्जन्म।
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कहानी का सार
> कर्म कभी किसी का पीछा नहीं छोड़ते।
जो बोते हो, वही काटते हो।
लेकिन अगर इंसान बदलना चाहे, तो कर्म भी क्षमा कर देते हैं।
चोर जन्म से नहीं होता — हालात बनाते हैं।
इंसानियत फिर से बना सकती है।