नारीशक्ति
लेखक राज फुलवरे
सांझ ढल चुकी थी। जंगल के ऊपर हल्का-हल्का धुंध पसरा हुआ था। हवा में ठंडी सरसराहट थी और पत्तों की खरखराहट हर छोटे से छोटे आवाज़ को ज़िंदा कर रही थी। इसी सुनसान रास्ते पर धीरे-धीरे चलते हुए दो साये दिखाई दे रहे थे — किरण और राहुल। दोनों की धड़कनें बराबर तेज थीं, पर वजह अलग-अलग।
किरण हल्के कदमों से चलते हुए कौतूहल और घबराहट के बीच झूल रही थी। वह राहुल की आँखों में देखकर धीमे से बोली,
"राहुल… हमें सच में यहाँ मिलना ठीक है? अगर कोई देख लेता तो?"
राहुल मुस्कुराया, उसकी आँखों में भरोसा और प्यार झलक रहा था।
"किरण, समाज तो हर छोटी बात पर नाम रखता है," उसने गहरी सांस ली,
"मुझे मेरी इमेज की परवाह हो या न हो… लेकिन मैं नहीं चाहता कोई तुझ पर उंगली उठाए। इसलिए हम यहाँ हैं — दूर सबकी नज़रों से।"
किरण की आँखें झुक गईं। उसके हल्के गुलाबी होंठों पर मुस्कान आई।
"तुम हमेशा मेरी इतनी फिक्र क्यों करते हो…?"
राहुल रुक गया। उसने किरण का हाथ थाम लिया।
"क्योंकि तुम मेरी जिंदगी हो। किरण, मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ। बहुत जल्द। अपने घरवालों से बात भी करूँगा। बस तुम हाँ कह दो।"
किरण का दिल जैसे छलक पड़ा। वह शरमाते हुए बोली,
"हाँ… मैं भी चाहती हूँ।"
दोनों ने एक-दूसरे को देखा, जैसे दुनिया थम सी गई हो। चारों तरफ़ सिर्फ़ झरते पत्तों की आवाज़, हवा की खामोशी और दो दिलों की धड़कनें।
वे जंगल के अंदर थोड़ा और आगे बढ़े। रास्ते में खामोश पेड़ थे, कहीं-कहीं सूखी टहनियों की चरमराहट। वे हँसते- बोलते सपनों पर चर्चा कर रहे थे—शादी के बाद कहाँ रहेंगे, घर कैसा होगा, बच्चे कैसे होंगे… सब कुछ सुंदर।
पर उन्हें क्या पता था—उनकी खुशियों के आसपास खतरे की काली छाया मंडरा रही थी।
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दूसरी ओर…
जंगल के ही एक दूसरे किनारे पर तीन शराबी गुंडे आग के पास बैठे थे। उनके चेहरे पर वहशीपन था, हाथ में शराब की बोतलें और जुबान पर गंदी सोच।
पहला बोला,
"यार आज दारू मिलने से रही। मेरा पॉकेट खाली है।"
दूसरा हँसते हुए बोला,
"अरे चिंता मत कर भाई। मेरे पास है। आज जमके पिएंगे।"
तीसरा लाल आँखों से बोला, नीच हँसी के साथ,
"दारू तो रोज़ की बात है। आज अगर कोई माल मिल जाता… लड़की वगैरह…"
उसकी नज़रें शैतानी से चमकीं।
"मज़ा आ जाता।"
उसी वक्त उनकी निगाहें दूर से चलते हुए राहुल और किरण पर पड़ीं।
पहला धीरे से बोला,
"वो देख… एक लड़का और लड़की।"
दूसरा होंठ चाटते हुए,
"जंगल में अकेले… मतलब आसान शिकार।"
तीसरा बोला,
"चल… मज़ा चखाते हैं।"
तीनों धीरे-धीरे छुपते हुए उनका पीछा करने लगे। पेड़ों के पीछे से नज़रें रखकर वे कदम मिलाते रहे।
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खुशियों में तूफ़ान
किरण और राहुल एक चट्टान के पास बैठ गए। राहुल बोला,
"देखो, हम बहुत जल्द शादी करेंगे। मैं सब संभाल लूँगा।"
किरण उसकी आँखों में देख रही थी,
"मैं तुम्हारे साथ हूँ राहुल। बस डर लगता है समाज से…"
राहुल ने उसका हाथ कसकर पकड़ा,
"समाज क्या, पूरी दुनिया भी आएगी तो मैं तुम्हारे साथ खड़ा रहूँगा।"
पर जैसे ही उसने वाक्य खत्म किया—धड़ाक!
किसी भारी वस्तु की आवाज़ राहुल के सिर पर लगी। तीसरे गुंडे ने लोहे की रोड से राहुल के सिर पर वार कर दिया। राहुल जमीन पर गिर पड़ा, खून बहने लगा।
"राहुल…!!" किरण चीख पड़ी।
उसने राहुल को उठाने की कोशिश की, आँसू पागलों की तरह बह रहे थे।
"उठो राहुल… प्लीज़… कोई है क्या… मदद करो!!!"
तीनों गुंडे हँसते हुए उसके पास आए।
"चिल्ला मत रानी… मदद हम देंगे।"
किरण डरकर पीछे हटने लगी।
"दूर रहो! वरना मैं…"
पहला गुंडा बोला,
"वरना क्या? तू अकेली, हम तीन।"
किरण भागने लगी—तेज, और तेज। पत्तों पर कदमों की आवाज़, धड़कन, साँसों की हड़बड़ाहट… गुंडे पीछे-पीछे।
"पकड़ो इसे!"
"भागने मत दो!"
अंत में किरण एक झाड़ी के पीछे फँसी। उसका पैर एक पत्थर से टकराया और वह नीचे गिर पड़ी। गुंडे ने उसे देख लिया।
"ये रही हमारी रानी!"
उसने उसका हाथ जोर से पकड़ा, बाहर घसीटा।
दूसरा उसके दूसरे हाथ को पकड़कर बोला,
"अब तो खेल शुरू होगा…"
तीसरा उसके गाल पर जोरदार चांटा मारता है—
"ज़्यादा नाटक मत कर!"
एक थप्पड़… फिर दूसरा… फिर तीसरा। हर वार के साथ किरण के अंदर कुछ टूट रहा था—डर, दर्द, असहायता।
आखिरी चांटा लगा और वह जमीन पर गिर पड़ी।
पर इसी गिरने के साथ उसके भीतर की देवी जाग उठी।
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नारीशक्ति का उभार
किरण की पलकों के पीछे जैसे आग जल उठी। यह अब वही डरपोक लड़की नहीं थी—यह रूप था काली का, दुर्गा का, नारीशक्ति का।
जमीन पर पड़े काँच के टूटे टुकड़े को उसने उठाया। उसके हाथ काँप नहीं रहे थे—दृढ़ थे।
पहला गुंडा पास आया,
"ओये, मर गई क्या—"
बस शब्द पूरे होने से पहले—
किरण ने काँच का टुकड़ा उसकी गर्दन में गहरा घुसा दिया।
गुंडे की चीख जंगल में गूँज उठी।
"आआआह्ह!!"
वह जमीन पर गिरने लगा, खून बहने लगा।
दूसरे और तीसरे गुंडे डरकर पीछे हटे।
"ये पागल हो गई है!"
"भागो—नहीं, पकड़ो! यही मौका है!"
पर इस बार वो शिकार नहीं—शिकारी थी।
किरण पास पड़ी मोटी लकड़ी उठा लेती है।
उसकी आँखें लाल, साँसें भारी, कदम शक्तिशाली।
वह चीखकर दौड़ी—
"स्त्री कमजोर नहीं! शक्ति है… आग है… विनाश है!!"
दूसरे गुंडे के कंधे पर धमाकेदार वार—
ढाऽऽक!
हड्डी टूटने की आवाज़। वह दर्द से गिर पड़ा।
तीसरा भागने लगा—
"माफ कर दे! छोड़ दे प्लीज़!"
किरण उसके पीछे चित्ते की गति से भागी।
उसका डर, दर्द अब हथियार बन चुका था।
उसने तीसरे को पकड़कर जमीन पर गिराया और डंडे से लगातार वार किए—
"ये मेरी गलती नहीं कि मैं लड़की हूँ!"
"गलती तुम्हारी सोच की है!"
"आज हर औरत के लिए ये वार है!"
गुंडे रोने लगते हैं, हाथ जोड़ते हैं—
"माफ कर दो… बस माफ कर दो…"
किरण की सांसें तेज थीं। पर वह रुक गई।
उसे याद आया—राहुल।
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प्रेम का स्पर्श
किरण वापस दौड़ती हुई राहुल के पास गई।
उसके घुटनों पर बैठकर उसका चेहरा उठाया।
"राहुल… सुनो… आंखें खोलो…"
वह काँपती आवाज़ में बोली—
"तुम ठीक हो ना? देखो मैं यहाँ हूँ…"
राहुल धीरे-धीरे आँखें खोलता है।
उसके होंठ सूखे, पर मुस्कान वही थी।
"किरण… तुम ठीक तो हो? वो लोग…"
किरण ने उसकी हथेली पकड़ी,
"अब कोई नहीं बचा जो मुझे छू भी सके।"
राहुल कमजोर आवाज़ में हँसने की कोशिश करता है,
"तुम तो… मेरी शेरनी निकली…"
किरण ने आँसू पोंछते हुए कहा,
"नारी कमज़ोर नहीं राहुल, बस परिस्थितियाँ जगाती नहीं।"
उसने पानी छिड़ककर राहुल को सम्भाला।
धीरे-धीरे वे दोनों जंगल से बाहर निकलने लगे—एक-दूसरे का सहारा लेकर।
आज वह सिर्फ़ प्रेम की कहानी नहीं थी—
यह स्त्री-शक्ति का जागरण था।
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समापन
जब समाज नाम रखता है,
जब डर और अत्याचार कदम रोकते हैं,
तब एक नारी का रूप बदलता है—
वह काली भी बनती है,
दुर्गा भी बनती है,
शक्ति भी बनती है।
इस रात जंगल से निकले दो लोग—
राहुल प्रेम लिए,
और किरण गौरव लिए।
जो लौटी तो डरी हुई लड़की नहीं,
बल्कि नारीशक्ति का ज्वालामुखी बनकर।