बेज़ुबान
लेखक राज फुलवरे
सुबह की हल्की धूप शहर की सड़कों पर बिखरने लगी थी। चाय की थड़ियों पर भाप उड़ते कुल्हड़ों की महक थी, आँखों में नींद लिए लोग अपने-अपने काम पर निकल रहे थे। इसी भीड़ में एक दुबला-पतला सा गूंगा लड़का, फटे कपड़ों में, नंगे पाँव… हाथ में एक स्टील का छोटा डिब्बा लिए लोगों के पीछे-पीछे चल रहा था। कभी किसी के हाथ जोड़कर आगे करता, कभी आँखों से दया की उम्मीद… लेकिन बहुत कम हाथ बढ़ते थे।
उसका नाम था आरव। उम्र करीब तेरह-चौदह साल। बोल नहीं सकता था—जन्म से ही। माँ-बाप कौन थे, उसे याद नहीं। इतना याद था कि बहुत छोटा था तभी किसी ने उसे सड़क किनारे रोते हुए देखा था। कुछ दिन उसे शरण मिली, फिर दुनिया ने उसे अपने हाल पर छोड़ दिया।
आरव रोज़ की तरह भीख माँगते-माँगते एक बड़े सेंट्रल गार्डन की ओर बढ़ा। यह गार्डन शहर का सबसे बड़ा पार्क था, सुबह-शाम भीड़ रहती थी। आसपास के भीख माँगने वाले बच्चे भी अक्सर यहीं आते थे। आज भी कुछ बच्चे पहले से गेट पर थे—गोलू, राजू, छोटी पिंकी, और समीर। सबके हाथ में कटोरा या डिब्बा।
पार्क के गेट के पास ही वह आदमी बैठा था जिससे सभी बच्चे डरते थे—राघव उर्फ़ राघू डॉन। उम्र करीब पैंतालीस, शरीर तगड़ा, आँखों में गुर्राहट, गर्दन पर चाकू का पुराना निशान। बच्चों से भीख का पैसा वसूलता था।
आरव धीरे से उनकी तरफ़ बढ़ा।
राघू ने उसे घूरा, दाँत पीसते हुए बोला—
"ओए चुप्पे! फिर आ गया? कितना कमाया?"
आरव डरते-डरते जेब से तीन सिक्के निकालकर उसकी हथेली पर रख देता है।
राघू सिक्कों को देखकर हँसता है—
"तीन रुपए? बस इतना? लगता है आज फिर सबक देना पड़ेगा!"
बाकी बच्चे सहम जाते हैं।
गोलू फुसफुसाता है—
"भाई, आज इसे छोड़ दो, सुबह-सुबह क्यों गुस्सा?"
राघव उसको घूरकर कहता है—
"तू ज़्यादा बोल मत गोलू! अगर आज से तुम सबने ठीक से कमाया नहीं, तो हाथ-पाँव काटकर मंदिर के किनारे भीख मंगवाऊंगा। कोई नखरे नहीं!"
उसके शब्द सुनकर बच्चों के चेहरे उतर जाते हैं।
आरव हाथ जोड़ता है, इशारों से बताने की कोशिश करता है कि आज कोशिश करेगा, ज़्यादा लाएगा। वह गर्दन झुकाकर पार्क में चला जाता है।
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भीड़ के बीच एक बेजुबान
पार्क में हँसी-खुशी का माहौल था। बुज़ुर्ग टहल रहे थे, बच्चे झूले पर खेल रहे थे, परिवार धूप सेंक रहे थे।
आरव एक-एक के पास जाता।
वह एक महिला के सामने कटोरा बढ़ाता है।
महिला बिना देखे हाथ का इशारा करती है—
"भागो यहाँ से, सुबह-सुबह मन खराब कर दिया!"
एक आदमी कहता है—
"काम क्यों नहीं करता? ऐश की भीख चाहिए बस!"
कुछ तो उसे धक्का दे देते हैं।
आरव लड़खड़ाता है, मगर चुप रहता है—क्योंकि उसके पास बोलने की ताक़त ही नहीं।
किसी ने पानी की बोतल मार दी, किसी बच्चे ने मज़ाक उड़ाया—
"अरे ये तो गूंगा है! बोल के दिखा! बोल-बोल!"
वे हँसे, आरव की आँखें भर आईं। वह पीछे हट गया। उसके भीतर दर्द उबल रहा था, पर आवाज़ नहीं थी जो निकल सके।
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गार्डन के बीच पुराना बरगद
थका-हारा वह गार्डन के बीच बने पुराने बरगद के पेड़ के नीचे आकर बैठ गया। पेड़ की छाँव शांत थी। चारों तरफ़ लोग थे, पर वह अकेला था।
वह कटोरा अपनी गोद में रखे चुप बैठा रहा। तभी उसकी नज़र एक परिवार पर पड़ी।
एक माँ अपने छोटे बेटे को गोद में बैठाकर खाना खिला रही थी। बेटे का नाम वह बाद में जानता—यश।
माँ, जिसकी आँखों में अपनापन था, मुस्कुराकर कह रही थी—
"यश, मुँह खोलो बेटा। विमान बनकर आ रहा है निवाला… वूँऊऊ…"
यश खिलखिलाकर हँसता, खाना खाता। कभी वह भागता, तो वह महिला प्यार से उसे बुलाती—
"शांत हो जाओ शैतान, आओ रोटी खा लो।"
आरव की आँखें उस दृश्य पर टिक गईं—जैसे उसकी आत्मा वहीं अटक गई हो।
उसके कटोरे में पैसे नहीं, पर आँखों में सपने झिलमिला रहे थे।
धीरे-धीरे सब दृश्य धुँधला होने लगा।
नींद और इच्छा ने उसे अपने स्वप्न में खींच लिया।
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सपनों की दुनिया – जहाँ माँ मिलती है
आरव की आँखें बंद होती हैं और वह एक दूसरी दुनिया में प्रवेश करता है—जहाँ दर्द नहीं, ताने नहीं… वहाँ बस प्यार है।
वह देखता है—वहीं बैठी वही महिला उसके पास आती है।
मुस्कुराकर पूछती है—
"बेटा, भूखे हो?"
आरव डरते-डरते सिर हिलाता है।
वह महिला उसके गाल पर हाथ फेरती है—
"आओ, मेरे साथ चलो।"
वह उसे अपने घर ले जाती है। साफ-सुथरा कमरा, दीवार पर भगवान की तस्वीर, रसोई से खाने की खुशबू।
वह प्लेट में खाना रखती है और उसके सामने रखती है।
"खाओ बेटा।"
आरव हाथ काँपते हुए इशारों में समझाता है—
(मैं बोल नहीं सकता…)
महिला समझ जाती है।
"मुझे पता है। लेकिन तुम्हें बोलने की ज़रूरत नहीं। मैं देख सकती हूँ तुम्हारा दिल साफ़ है।"
आरव की आँखों से आँसू गिरते हैं।
वह इशारे से पूछता है—
(आप मुझे क्यों… अपनाना चाहती हैं?)
महिला मुस्कुराती है—
"क्योंकि आज से तुम मेरे बेटे हो।"
आरव खिल उठा।
वह खिलखिलाकर हँसता है (स्वप्न में उसकी हँसी सुनाई देती है)।
वह महिला उसे बाज़ार ले जाती है, नए कपड़े दिलाती है, जूते पहनाती है।
यश और आरव पार्क में खेलते हैं।
माँ दोनों को गोलगप्पे खिलाती है।
आरव इशारों में कहता है—
(मेरा मन नहीं है गोलगप्पे खाने का।)
माँ हँसकर कहती है—
"मन नहीं? तो ये लो… प्यार का जादू!" और उसे मुँह में भर देती है।
आरव और यश खिलखिलाते भागते हैं, माँ पीछे दौड़ती है।
"रुको बेटा, थोड़ा और खा लो!"
पूरा सपना माँ की ममता से भरा।
वह घर के दरवाज़े पर बैठा चाय पी रहा है, माँ उसके बाल सहला रही है।
वह कहता है (इशारों से)—
(काश, यह हमेशा रहे…)
माँ उसे सीने से लगा लेती है—
"हमेशा, मेरे बच्चे।"
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सपना टूटता है
अचानक किसी ने उसके कटोरे पर पैर रख दिया—
छन्न…! स्टील की आवाज़ से वह चौंककर उठ बैठा।
सपना टूट गया।
बरगद, पार्क, लोग, शोर—सब वैसा ही।
कोई माँ नहीं। कोई घर नहीं।
हाथ खाली, दिल और भी ख़ाली।
आरव ने चारों ओर देखा—फिर कटोरा उठाया।
सपना आँखों में धुँध की तरह तैर रहा था।
वह फिर उठकर लोगों के पीछे-पीछे जाने लगा।
हाथ फैलाया—
कुछ ने देखा ही नहीं, कुछ ने मना किया, कुछ हँस दिए।
लेकिन वह चलता रहा—क्योंकि पेट भूख से जल रहा था।
क्योंकि उसके पास आवाज़ नहीं थी लड़ने की।
क्योंकि सपनों से पेट नहीं भरता।
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शाम ढलती है
आसमान नारंगी हो रहा था।
बच्चे थककर वापस राघू के पास लौट रहे थे।
गोलू ने 35 रुपये लाए थे, राजू ने 28, पिंकी ने 12, समीर के हाथ में 20 रुपये।
आरव के डिब्बे में बस 6 रुपये थे—
सुबह के तीन और दिन भर के तीन।
सबने पैसे राघव के सामने रखे।
राघव संतुष्ट नहीं था लेकिन चुप रहा।
जब आरव की बारी आई, उसने डिब्बा आगे किया।
6 रुपये देखकर राघव का चेहरा आग जैसा लाल।
वह गुर्राया—
"फिर नाकाम! तुझसे नहीं होगा।"
गोलू डरते हुए बोला—
"भाई, आज लोग पैसे ही नहीं दे रहे थे।"
राघव ने उसे झापड़ मारा—
"तू बोलेगा क्या मेरी जगह?"
फिर उसने आरव को कॉलर से पकड़कर जमीन पर धक्का दिया।
एक जोरदार चांटा…
आरव ज़मीन पर गिर पड़ा। होंठ कट गए, खून बहा।
भीड़ देख रही थी—कोई आगे नहीं आया।
बस हवा थी जो रो रही थी।
राघव चिल्लाया—
"कल से दोगुना कमाएगा, वरना टाँगें तोड़कर मंदिर के बाहर बैठा दूँगा। समझा?"
आरव उसकी आँखों में नहीं देख पाया।
बस चुपचाप उठा, कटोरा उठाया, और पेड़ की ओर चला गया।
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रात
पार्क सूना होने लगा।
लाइटें जल गईं।
आरव पेड़ के नीचे सिकुड़कर बैठा।
उसका पेट खाली था, दिल भारी।
उसने हाथ बाँहों में छुपाए, घुटनों पर सिर रखा।
आँखें बंद होते ही वही सपना सामने…
माँ, घर, खाना, हँसी—
पर इस बार उसने खुद सपना रोक दिया।
वह जान गया था—
सपना सच नहीं होता।
उसकी आँख से एक आँसू गिरा और मिट्टी में खो गया—
जैसे उसका जीवन दुनिया में खो गया था।
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सुबह फिर आएगी…
वह फिर भीख माँगेगा…
लोग शायद आज भी धक्का देंगे…
राघव फिर गाली देगा…
पर शायद किसी दिन—
कोई उसकी खामोशी पढ़ ले।
कोई कह दे—
"आओ बेटा, आज से तुम मेरे हो।"
लेकिन आज की सच्चाई यही थी—
आरव बेजुबान था, और दुनिया बहरी।
वह उठा, अपने आँसू पोंछे, और अगले दिन की भूख, पसीना और अपमान की तैयारी में चल पड़ा।
सपना पीछे छूट गया—पर दिल ने उसे संभाल कर रखा।
क्योंकि कभी-कभी सपने ही इंसान को जिंदा रखते हैं।
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समाप्त