तपस्विनी
लेखक राज फुलवरे
दिशाएँ उस दिन असामान्य रूप से शांत थीं. सूर्य ढलने को था, पर उसकी किरणें जंगल के विस्तृत फलों, लताओं और अनगिनत पत्तों पर ऐसा बिखर रही थीं जैसे पूरा वन सोने की चादर ओढ रहा हो. हवा में मिट्टी की सुगंध थी, और पंछियों की अंतिम संध्या- ध्वनि वातावरण को एक दिव्य लय दे रही थी.
इन्हीं शांत ध्वनियों के मध्य एक युवती आगे बढ रही थी—
तपस्विनी.
उसके पैरों में चप्पल नहीं थी, पर उसकी चाल इतनी हल्की थी कि लगता था मानो धरती खुद उसका मार्ग बनाती जा रही हो. उसके चारों ओर एक सूक्ष्म आभामंडल उत्पन्न हो रहा था—जिसे कोई भी तपस्वी पहचान सकता था. पर वह साधारण तपस्विनियों जैसी नहीं थी; उसकी आँखें भीतर के ब्रह्मांड को देखने वाली योगिनियों जैसी थीं.
तपस्विनी का मन, तपस्विनी का संसार
उसने गहरी साँस ली.
वन की हवा उसके फेफडों में उतरकर उसकी आत्मा को शुद्ध कर रही थी.
तपस्विनी (धीरे से):
प्रभु.
इस जीवन का हर क्षण आपके लिए समर्पित है.
जहाँ मोह- माया का अंत होता है, वहाँ से ही मेरी राह शुरू होती है।
उसका स्वर इतना शांत था कि पास के पेडों पर बैठे पक्षी भी एक पल को स्थिर हो गए.
वह वन के और भीतर गई. वहां एक ऐसा स्थान था जहाँ प्रकृति अपनी चरम शांति में थी—
न कोई शोर,
न कोई पशु,
बस प्रकृति की निःशब्दता.
तपस्विनी ने वहीं अपना आसन लगाया—कुश की घास पर, एक पुराने बरगद के नीचे, जिसकी शाखाएँ मानो उसे आलिंगन दे रही हों.
गुरुदेव अरिष्ट का प्रकट होना
उसी समय, पर्वतों की कंदराओं से नीचे उतरते हुए एक वृद्ध रिषि — गुरुदेव अरिष्ट — अपने नित्य भ्रमण पर थे.
उनके पास अनगिनत शिष्य थे, साधना का अपार ज्ञान था, और सबसे बढकर था—
सैकडों वर्षों का तप- सामर्थ्य.
वे मन से निर्विकार थे.
पर आज कुछ ऐसा हुआ जो सदियों में कभी नहीं हुआ था.
उन्होंने तपस्विनी को देखा.
उनके कदम वहीं रुक गए.
हवा जैसे थम गई.
उनकी आँखें कुछ क्षणों तक पलक- मुक्त रहीं.
गुरुदेव (अचंभित):
यह. यह कोई साधारण कन्या नहीं.
यह कौन है जिसकी उपस्थिति मात्र से वन का तापमान बदल जाए?
उनके भीतर एक विचित्र तरंग दौडने लगी—
एक ऐसा आकर्षण जो किसी योगी के मन को डगमगा सकता था.
वे धीरे- धीरे उसके पास पहुंचे.
गुरुदेव:
वत्से. कौन हो तुम? Kiss लक्ष्य से इस गहन वन में आई हो?
तपस्विनी ने अपनी शांत आँखें उठाईं.
उनकी दृष्टि ऐसी थी जैसे कोई नदी बिना किसी तरंग के बह रही हो.
निर्मल, अचल और निर्विकार.
तपस्विनी:
गुरुदेव, मैं सत्य की साधक हूँ.
यह वन मेरे लिए केवल एक स्थान नहीं—मेरा मंदिर है.
मेरी तपस्या मेरी पहचान है, और मेरा संकल्प ही मेरा मार्ग।
गुरुदेव स्तब्ध रह गए.
ऐसा उत्तर उन्होंने वर्षों में नहीं सुना था.
गुरुदेव का मन डगमगाना
तपस्विनी ने फिर आँखें बंद कर लीं.
मंत्रों की सूक्ष्म ध्वनि वातावरण में उठने लगी.
पर गुरुदेव का मन विचलित था.
वह पहली बार अपनी साधना से हटकर किसी रूप, किसी आत्मा की ओर आकर्षित हुए थे.
गुरुदेव (मन में):
यह कन्या. यह दिव्य तेज.
मुझे क्यों इतनी शांति देता है?
मैं क्यों चाहता हूँ कि यह मेरे आश्रम में रहे. मेरे समीप रहे?
उन्होंने अपने भीतर उठी भावनाओं को छिपाने की कोशिश की,
पर तपस्विनी का तेज इतना गहरा था कि वह किसी भी मन का सत्य बाहर ला देता.
गुरुदेव के प्रयास
अगले कई दिन तक गुरुदेव वहाँ आते रहे.
कभी वे सलाह देने के बहाने उसके पास बैठते.
कभी उसके लिए फल- फूल लाते.
कभी मौसम खराब होने का हवाला देते.
गुरुदेव:
वत्से, इतना कठोर तप अकेले करना उचित नहीं.
मेरे आश्रम में आओ—वहाँ शिष्य हैं, सुरक्षा है, व्यवस्था है।
तपस्विनी (नम्र पर दृढ):
गुरुदेव, मेरा मार्ग एकांत का मार्ग है.
जहाँ सांसारिक संबंध बनते हैं, वहाँ तप की अग्नि मंद हो जाती है.
मैं यहाँ ठीक हूँ।
गुरुदेव निराश होते,
पर भीतर का मोह उन्हें फिर अगले दिन वही खींच लाता.
इंद्रलोक में हलचल
उधर, स्वर्गलोक में एक असामान्य तेज फैल रहा था.
देवगण हैरान थे.
एक देवदूत:
देवराज, यह तेज किसी दानव का नहीं. किसी महर्षि का नहीं.
यह तो एक साधिका का है।
इंद्र सिंहासन पर बैठे चिंतित हो गए.
इंद्र:
स्त्री? इतनी तीव्र साधना?
यदि यह सिद्ध हो गई. तो यह शक्ति तीनों लोकों में समानांतर प्रभाव डाल सकती है.
हमें इसका तप रोकना ही होगा।
इंद्र का स्वभाव सदियों से ऐसा था—
तप और साधना उन्हें असुरक्षा देती थी.
इंद्र का तप- भंग प्रयास
इंद्र ने अपनी पूरी माया लगा दी.
कभी वे अप्सराओं को भेजते—मेघा, उर्वशी, रंभा.
कभी वन में भ्रम, डर या प्रलोभन उतारते.
कभी मौसम को क्रोधित करते—
तूफान, बिजली, तेज वर्षा.
पर तपस्विनी स्थिर थी.
बिजली उसके पास पहुँचने से पहले ही शांत हो जाती,
हवा उसकी साँसों की लय में बहने लगती,
और वन उसके चारों ओर रक्षक दीवार बना लेता.
तपस्विनी (मंत्रोच्चार करते हुए):
जो मन को जीत ले.
उससे देवता भी हार जाते हैं।
उसकी आवाज सुनकर हवा कम्पित हो उठती.
इंद्र के प्रयास एक- एक कर विफल होते गए.
देवतापूर्ण संरक्षण
कभी अचानक दिव्य प्रकाश उसकी रक्षा करता.
कभी कोई अदृश्य शक्ति इंद्र की माया को नष्ट कर देती.
कभी वनदेव उसके चारों ओर एक प्राकृतिक कवच बना देते.
तपस्विनी ऐसी थी.
जितना अधिक उसे तोडने की कोशिश होती,
वह उतनी ही बलवान होती चली जाती.
भगवान का प्रकट होना
वर्षों बीत गए.
एक दिन वन में ऐसा प्रकाश फैला जिसमें सूर्य का तेज भी फीका लगने लगा.
धरती हिलने लगी.
पक्षी उडान भरकर मगन होने लगे.
जानवर चुपचाप सिर झुकाकर बैठ गए.
तपस्विनी ने आँखें खोलीं—
और सामने भगवान को खडे पाया.
भगवान:
वत्से.
तुम्हारा तप देवताओं को भी विस्मित कर गया है.
तुमने समर्पण का वह स्तर प्राप्त किया है जहाँ मनुष्य दुर्लभता से पहुँच पाता है.
वर मांगो।
तपस्विनी ने हाथ जोडकर कहा—
तपस्विनी:
मुझे केवल इतना वर चाहिए कि मैं किसी के अहंकार, भय या प्रलोभन से विचलित न होऊँ.
और तीनों लोकों में संतुलन और धर्म की रक्षा कर सकूँ।
भगवान:
तथास्तु।
उस क्षण वह त्रिलोकी शक्ति की धारक बन गई.
इंद्र का पश्चाताप
जब इंद्र को यह ज्ञात हुआ,
उनकी आँखों में ग्लानि भर गई.
वे तुरंत धरती पर उतरे.
तपस्विनी के सामने सिर झुकाया.
इंद्र:
देवी.
मेरी दृष्टि संकीर्ण थी.
आपकी शक्ति, आपका तप, आपकी निष्ठा—देवलोक में भी विरले देखने को मिलती है.
मैंने आपको रोकने का प्रयास कर पाप किया.
आपका सम्मान ही मेरा कर्तव्य है।
उन्होंने हाथ जोडकर कहा—
इंद्र:
आप इंद्र को भी पराजित करने योग्य शक्ति रखती हैं.
इसी कारण, आज से मैं आपको एक उपाधि देता हूँ—
इंद्रहीन—
जो किसी भी इंद्र की शक्ति से परे है।
परंतु जगत में आपका नाम होगा—
इंद्रायणी।
उनके शब्द जंगल में गूँज उठे.
देवताओं ने पुष्पवृष्टि की.
वनदेवताओं ने वंदन किया.
और तपस्विनी के मुख पर एक शांत, दिव्य मुस्कान फैल गई.