नित्य नीमा
लेखक राज फुलवरे
अध्याय 1 — नीला शहर और रुका हुआ समय
नीला शहर… यह नाम किसी कविता की पंक्ति जैसा लगता था, लेकिन इस गाँव की सच्चाई उससे कहीं अधिक अजीब, रहस्यमय और डरावनी थी।
यह गाँव दुनिया के बाकी गाँवों से बिल्कुल अलग था—यहाँ सब कुछ नीला था। घर, पेड़, मिट्टी, कपड़े, हवा में घुली खुशबू… और सबसे बड़ी बात—यहाँ के लोग भी पूरी तरह नीले थे।
गाँव वालों की आँखें भी हल्की नीली चमक लिए रहती थीं, जैसे हर किसी के भीतर एक छोटा आसमान कैद हो।
लेकिन इस गाँव की सबसे खौफ़नाक बात ये थी—हर दिन दोपहर 12:00 बजे पूरा गाँव एकदम थम जाता था।
हाँ, बिल्कुल रुक जाता था।
औरतें, बच्चे, जवान, बूढ़े, जानवर… यहाँ तक कि बहती हवा भी जैसे कुछ पलों के लिए जम जाती।
हर इंसान एक ही जगह पर ठहर कर पत्थर जैसा हो जाता—ना साँस, ना हरकत, ना आवाज़।
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नित्य और नीमा — दो जागती आत्माएँ
गाँव के बाकी लोगों की तरह नित्य और नीमा भी इसी नीले शहर के निवासी थे।
नित्य मज़बूत कद-काठी का, शांत स्वभाव का युवक था। उसकी आँखों में हमेशा एक बेचैनी रहती—जैसे उसे कुछ याद आना चाहता हो लेकिन वह यादें हमेशा धुंध में खो जातीं।
नीमा… एक रहस्यमयी युवती। उसकी नीली त्वचा की चमक बाकी सब से अलग थी। उसकी आँखें गहरी थीं—जैसे उस नीली गहराई में कोई भूला हुआ सच छिपा हो।
दोनों कुंवारे, दोनों की उम्र भी लगभग बराबर, और दोनों के भीतर एक ही सवाल—
“हम हर दिन क्यों रुक जाते हैं?”
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अध्याय 2 — रात के 12 बजते ही…
जैसे ही रात के ठीक 12 बजते, पूरा गाँव धीरे-धीरे फिर से सक्रिय होता।
लेकिन यह सक्रियता हवा में नहीं आती थी। यह फैलती थी हाथों के स्पर्श से—एक अजीब नियम।
सबसे पहले गाँव में सिर्फ एक व्यक्ति जागता—कौन जागेगा, यह किसी को नहीं पता था।
उस रात सबसे पहले जागा नित्य।
उसकी आँखें धीरे-धीरे खुलीं। हवा में हल्की नीली रोशनी तैर रही थी। पूरा गाँव अब भी स्थिर था।
नित्य ने साँस ली—धीरे से, जैसे सदियों बाद किसी आत्मा में जीवन आया हो।
उसने कुछ कदम आगे बढ़ाए। उसके सामने नीमा खड़ी थी—एकदम जमी हुई, उसकी पलकें भी न हिल रहीं।
नित्य ने हाथ बढ़ाया… और नीमा के सीने पर रखा।
नीमा ने तुरंत गहरी साँस ली—
नीमा: “हूँ—ह्ह—नित्य…? मैं… कितने बजे…?”
नित्य: “रात के 12 बज गए हैं। हम फिर जाग गए हैं… बाकी की तरह।”
नीमा ने चारों ओर देखा—हर ओर नीला, स्थिर, शांत, मौत जैसा सन्नाटा।
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अध्याय 3 — दोनों का दिमाग पहली बार पूरी तरह सक्रिय
उस रात कुछ अलग था।
जैसे ही नित्य और नीमा जागे—उनके दिमाग में एक तेज़, हल्की बिजली सी दौड़ गई।
जैसे सदियों से सोई यादें धीरे-धीरे दरवाज़ा खटखटा रही हों।
दोनों एक-दूसरे को देखते हैं।
नीति: “नीमा… तुम्हें भी वही महसूस हो रहा है?”
नीमा: “हाँ… जैसे आज दिमाग सच में जाग गया। जैसे कुछ बहुत बड़ा छुपा है… इस नीले रंग में… इस रुकते हुए समय में।”
दोनों ने एक साथ कहा—
“यह सब क्यों हो रहा है?”
यह पहली बार था जब प्रश्न उनके दिमाग में इतना तेज़ उभरा था।
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अध्याय 4 — खोज की शुरुआत
नित्य पहली बार गाँव की सीमा पार करने की कोशिश करता है।
चारों ओर नीले पेड़, नीली मिट्टी, नीला चाँद… लेकिन आज इस नीलेपन में डर से ज्यादा जिज्ञासा थी।
नीमा उसके साथ खड़ी थी।
नीमा: “अगर इस शहर को किसी ने श्राप दिया है… तो उसकी वजह भी होगी।”
नित्य: “और उसका इलाज भी।”
दोनों ने एक-दूसरे का हाथ पकड़ा और धीरे-धीरे गाँव के रहस्यों की तरफ बढ़ने लगे—उन अंधेरों की ओर, जहाँ शायद सदियों से कोई सच्चाई दबी पड़ी थी।
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अध्याय 5 — रहस्यमय बूढ़ा व्यक्ति
नित्य और नीमा रात के नीले सन्नाटे में चलते-चलते जंगल की ओर पहुँच गए थे। नीले शहर की सीमा से बाहर जाते ही हवा की खुशबू बदल गई—यहाँ नीलेपन की जगह हल्की सुनहरी रोशनी सी तैर रही थी।
पेड़ों की पत्तियाँ नीली नहीं थीं… बल्कि सामान्य हरी। मानो नीला श्राप इस जगह तक नहीं पहुँचा हो।
दोनों ने पहली बार ऐसा जीवन देखा जो स्थिर नहीं था, जो रुकता नहीं था।
जंगल के बीच एक बड़ा पुराना बरगद का पेड़ खड़ा था। उस पेड़ की जड़ पर एक बूढ़ा आदमी बैठा था।
और सबसे चौंकाने वाली बात—वह नीला नहीं था।
उसकी त्वचा सामान्य मानवीय रंग की… और उसके चारों ओर एक अजीब तेजस चमक रहा था। जैसे वह समय से परे हो, लेकिन समय को नियंत्रित भी कर सकता हो।
नित्य और नीमा दोनों एक साथ रुक गए।
नीमा (धीरे से): “नित्य… देखो! वह… नीला नहीं है!”
नित्य (आश्चर्य में): “यह कैसे संभव है? हमारे गाँव के बाहर भी कोई सामान्य हो सकता है…?”
बूढ़ा आदमी लकड़ी की लाठी पर हाथ टिकाए मुस्कुराने लगा।
बूढ़ा: “मैं तुम्हारा इंतज़ार कर रहा था… नित्य… नीमा…”
दोनों एक-दूसरे को देखने लगे।
नित्य: “आप… हमारा नाम कैसे जानते हैं?”
बूढ़ा: “बेटा, दुनिया की हर श्रापित कहानी का अंत दो ही लोग करते हैं—वह जिनका दिल जागने लगता है… और आज तुम्हारा दिमाग भी जाग चुका है।”
नीमा आगे बढ़ी।
नीमा: “हमें बताइए… यह नीला श्राप क्या है? हमारा गाँव हर दिन दोपहर को क्यों रुक जाता है?”
बूढ़ा व्यक्ति ने एक गहरी साँस ली, उसकी आँखों में सदियों पुरानी थकान झलक रही थी।
बूढ़ा: “तुम्हारे गाँव को श्राप नहीं… दंड मिला है। और इसे खत्म करने का एक ही तरीका है।”
दोनों उत्सुकता से आगे बढ़े।
नित्य: “कैसा तरीका?”
बूढ़े ने अपनी लाठी से जंगल की ओर इशारा किया।
बूढ़ा: “जंगल के बीच एक पुराना कुआँ है… उसके अंदर एक कछुआ है… और उस कछुए के पेट में छुपी है एक मणि। नीली नहीं… बल्कि लाल। वही मणि श्राप की कुंजी है।”
नीमा की आँखें फैल गईं।
नीमा: “कछुआ? पेट के अंदर? हम उसे कैसे निकालेंगे?”
बूढ़ा मुस्कुराया।
बूढ़ा: “तुम दोनों में शक्ति है। विश्वास रखो। उस मणि को निकालकर नीला शहर ले जाना… और वहाँ पुराने मंदिर में शिवलिंग के ऊपर रख देना… बस, श्राप उसी पल खत्म हो जाएगा।”
नित्य ने धीरे से पूछा—
नित्य: “और हमारा गाँव फिर सामान्य हो जाएगा?”
बूढ़ा (गंभीर होकर): “सिर्फ गाँव ही नहीं… बल्कि तुम्हारी खोई हुई यादें भी लौट आएँगी।”
नीमा का दिल तेजी से धड़कने लगा।
नीमा: “क्या हमारी यादें भी… श्राप में बंद हैं?”
बूढ़ा: “हाँ। तुम दोनों को अपने असली जीवन की कुछ बातें याद नहीं क्योंकि तुम्हारे मन पर ताला लगा है। ताला उस मणि से ही खुलेगा।”
नित्य और नीमा ने एक-दूसरे का हाथ पकड़ लिया।
नित्य: “तो हमें उस कुएँ तक जाना ही होगा।”
नीमा: “हाँ… चाहे कितना भी खतरा क्यों न हो।”
बूढ़े ने सिर हिलाया।
बूढ़ा: “जाओ, समय बहुत कम है। आज की रात सबसे महत्त्वपूर्ण है… क्योंकि आने वाली रातों में रास्ता खुद-ब-खुद बदल जाएगा।”
दोनों ने उस बूढ़े को प्रणाम किया और जंगल की गहराइयों में चल पड़े—जहाँ अंधेरा सिर्फ अंधेरा नहीं था… बल्कि हर कदम पर कोई रहस्य छुपा था।
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(अध्याय 6 — जंगल का कुआँ, कछुए का रहस्य, नीली आत्माओं का हमला… क्या मैं आगे लिखूँ?)
अध्याय 6 — अनेक कुएँ और छुपी हुई मणि
नित्य और नीमा जंगल में आगे बढ़ते गए। पेड़ों के बीच से ठंडी हवा चल रही थी, और चाँद की हल्की रोशनी ज़मीन पर नीले-से साए बना रही थी।
थोड़ी दूरी चलने के बाद दोनों एक खुले मैदान में पहुँचे—और वहाँ का दृश्य देखकर दोनों स्तब्ध रह गए।
वहाँ एक नहीं… बल्कि अनगिनत कुएँ थे।
हर कुआँ एक जैसा, हर कीचड़ एक जैसा, हर पत्थर एक जैसा—जैसे किसी ने एक कुएँ की सौ प्रतिलिपियाँ बनाकर यहाँ रख दी हों।
नीमा ने घबरा कर कहा—
नीमा: “नित्य… बूढ़े ने कहा था एक कुएँ में कछुआ होगा… लेकिन ये इतने सारे कुएँ… हम सही वाला कैसे ढूँढेंगे?”
नित्य ने चारों ओर देखा।
नित्य: “हमें ढूँढना ही होगा। यही एक रास्ता है।”
दोनों एक-एक कुएँ की ओर बढ़ने लगे। हर कुएँ में पानी था, लेकिन कोई हलचल नहीं। कोई आवाज़ नहीं।
करीब दस कुएँ देखने के बाद, एक कुएँ के पानी में हल्की-सी लहर उठी।
नीमा ने इशारा किया—
नीमा: “नित्य! देखो! इस कुएँ में कुछ हिला है!”
दोनों किनारे पर झुककर नीचे देखने लगे।
अंधेरे पानी में एक बड़ा-सा कछुआ तैर रहा था।
नित्य ने धीरे से कहा—
नित्य: “यही है… इसी के पेट में मणि होगी।”
दोनों बिना हिचकिचाए कुएँ में उतर गए। पानी ठंडा था, लेकिन उन्हें जल्दी करनी थी।
कछुआ भारी था, लेकिन नित्य ने उसे पकड़ लिया। नीमा ने पास आकर उसका पेट छूकर देखा—अंदर कुछ कड़ा-सा था।
नीमा ने कहा—
नीमा: “यही मणि है… हमें इसे निकालना होगा।”
कछुए को किनारे लाकर दोनों ने सावधानी से उसके पेट में लगी पतली झिल्ली हटाई—अंदर से एक चमकदार लाल मणि निकल आई।
दोनों के चेहरे पर राहत दिखी।
नित्य ने कहा—
नित्य: “चलो… अब गाँव चलते हैं।”
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अध्याय 7 — शिवलिंग पर मणि और श्राप का अंत
दोनों रात के अँधेरे में जल्दी-जल्दी नीले गाँव की ओर लौटे। गाँव अब भी नीली चुप्पी में डूबा हुआ था—सब लोग स्थिर, हवा तक ठहरी हुई।
मंदिर में प्रवेश करते ही शिवलिंग के ऊपर हल्की-सी नीली रोशनी तैरती नजर आई।
नीमा ने मणि को दोनों हाथों में उठाया।
नित्य ने कहा—
नित्य: “इसे शिवलिंग पर रख दो… और सब खत्म हो जाएगा।”
नीमा ने धीरे-धीरे आगे बढ़कर मणि शिवलिंग के ऊपर रख दी।
जैसे ही मणि शिवलिंग को छूती है—
एक जोरदार प्रकाश फूटा… नीला, सफेद, सुनहरा—सब रंग मिलकर पूरे गाँव में फैल गए!
नीली हवा टूट गई।
स्थिर लोग हिलने लगे।
समय, जो सालों से बंद था… दौड़ने लगा।
गाँव वाले एक-एक कर जाग उठे। उनकी त्वचा का नीला रंग धीरे-धीरे मिटने लगा।
एक बच्चा चिल्लाया—
बच्चा: “माँ! हम… हम सामान्य हो गए!”
औरतें रोने लगीं। बूढ़े हँसने लगे।
सब तरफ एक ही आवाज़ गूँज उठी—
“श्राप खत्म हो गया!”
नित्य और नीमा मंदिर के बीच खड़े थे… थके हुए, गीले, लेकिन खुश।
गाँव अब आज़ाद था।