: : प्रकरण :: 13
हसमुख की वजह से सुहानी मुझ से दूर हो जायेगी. यह डर मुझे खाये जा रहा था.
मुझे गले तक खातिर थी, वह भी सुहानी के पास अपने पैर डबवायेगा.
वह चलती गाड़ी में चढ़ने वाला यात्री था. वह कुछ भी कर सकता था.
हसमुख आया उस के दूसरे दिन मैं बड़ी मा मुंबई आये थे.. दोनों शाम को हीं मेरे पुत्र को मिलने गये थे.
मैं एक दिन देर से आया था इस बात से गीता बहन ने सवाल उठाया था. और मैंने उन के सवाल का इत्मीनान से जवाब दिया था.
हमारे आने के बाद कुछ हीं दिनों में सुहानी भी हसमुख के साथ मुंबई आ गई थी. उसे इतनी जल्दी क्या थी? और ललिता पवार ने क्यों उसे अकेले जाने दिया था.
बड़ी मा मुंबई में थी. लेकिन वह अलग दूसरे घर में रहते थे. सुहानी केवल खाना खाने वहाँ जाती थी, बाकी अपने घर में अकेली रहती थी!!
और दोनों अनिश और हसमुख का उस के घर आना जाना जारी था.
हसमुख की बीवी गांव में रहती थी. इस स्थिति में उसे इधर उधर हाथ मारने की आदत थी. वह जरूर सुहानी को अपनी हवस का शिकार बनायेगा.. इस बात की पूर्ण संभावना थी. फिर भी क्या सोचकर उन्होंने अपनी लड़की को अकेले मुंबई भेजा था!!
सुहानी एक बार उस के साथ होटल में खाना खाने भी गई थी.
उस ने खुद मेरे सामने इकरार किया था.
गाडी में उस ने एक लड़की से संबंध बनाने की कोशिश की थी.
फिर तो मेरी हर कोई चीज में आड़ा आने की उस की आदत पड़ गई थी.
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एक बार मैंने अपने ससुराल के सारे सदस्यों के लिये ' अमर प्रेम ' फ़िल्म की टिकिट बुक करवाई थी.. मैं यह कार्यक्रम अपनों तक सिमित रखना चाहता था. इस लिये मैंने हसमुख को बताया नहीं था.
समय होने पर हम सब लोग तैयार होकर थियेटर पहुंच गये थे. दरवाजे के पास हाउस फूल का बोर्ड लटक रहा था.. और बाजु में हसमुख अपनी बीवी को लेकर खड़ा था, उस के हाथ में फ़िल्म का टिकिट था.
यह देखकर मुझे अचरज हुआ था. उन्हें कैसे टिकिट मिल गया?
उस ने सामने से खुलासा किया था.
वह लोग भी फ़िल्म देखने आये थे उस के लिये ललिता पवार और सुहानी जिम्मेदार थे. उन्होंने हसमुख को फ़िल्म देखने आमंत्रित किया था ना तो यह बात बताई थी ना तो उन्होंने अलग से टिकिट बुक करवाई थी उस बात का जिक्र किया था.
यहाँ तक की बात को मैंने किसी भी तरह हजम कर लिया था. पूछने का कोई अर्थ नहीं था.
लेकिन यहाँ भी हसमुख दो कदम आगे बढ़ गया था.
हम लोग होल में दाखिल हुए थे. सुहानी हमारी बाजु में बैठी थी. हसमुख ने उसे बुलाकर अपनी बाजु की सीट पर बैठा दिया था. अब ज़ब सारा थियेटर फूल था. तो उस की बाजु की सीट खाली कैसी थी. यह हसमुख की बदमाशी का प्रमाण पत्र था. उस ने सुहानी को साथ बिठाने के लिये उस का अलग टिकिट निकाला था.
और पढ़ी लिखी सुहानी में इतनी तमीज नहीं थी. वह हमारे साथ आई तो हम से कम से कम मेरी अनुमति मांगे.
उस के ऐसे व्यवहार से दोबारा मेरा मूड ख़राब हो गया था.
फ़िल्म के एक गीत की कड़ी मेरी हालत बयान कर रही थी :
हम से मत पूछो कैसे मंदिर टूटा सपनों का
लोगो की बात नहीं हैं यह किस्सा हैं अपनों का
कोई दुश्मन ठेस लगाये तो मीत जिया बहलाये
मन मीत जो घाव लगाये उसे कौन मिटाये
फ़िल्म अच्छी थी लेकिन उन लोगो के व्यवहार ने सारा मजा किरकिरा कर दिया था. उन सब ने मेरे साथ गलत किया था लेकिन किसी ने मेरी मांफी मांगना जरूरी नहीं माना था.
फ़िल्म देखने के बाद हम लोग चौपाटी गये थे. तब भी मेरा मूड बिगड़ा हुआ था. मैंने सुहानी को कडूए शब्दों में डांटा था.
" तुम तो इतनी पढ़ी लिखी हो लेकिन एक छोटे बच्चे की समझ तुझ में नहीं हैं, शिष्टाचार नाम की कोई चीज नहीं बची हैं. "
हसमुख की वजह से यह सुनना पड़ा था. फिर भी वह नफफ्ट बनकर देख रहा था.
कम से कम एक शिक्षक होने के नाते उस में उतनी समझ तो होनी चाहिये थी.
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ना जाने ललिता पवार ने हसमुख में क्या देख लिया था. उन्होंने ने उसे बहुत चढ़ाया था.
बड़ी मा का जन्म दिन था तो उन्होंने एक मिनि पिकनिक का आयोजन किया था. यह सुनते हीं ललिता पवार ने उसे फोन कर के आमंत्रण दे दिया था.
" इस रविवार को तुम्हारी बहू को लेकर सुबह छह बजे चर्नी रोड स्टेशन आ जाना. "
और बंदा हाजिर हो गया था.
उस दिन मैंने सुहानी का एक और रूप देखा था. वह हसमुख की बीवी के पीछे पागल सी हो गई थी.
एक दिन खुद उस ने मुझे कहां था.
" मुझे अपनी बड़ी बहन से बहुत प्यार करती हूं."
लेकिन उस दिन ऐसा लग रहा था. हसमुख की बीवी उस की बड़ी बहन हो.
हम लोग पिकनिक स्पोट पर पहुंच गये थे. और हसमुख की बीवी की गोद में सिर रखकर सो गई थी. उस दिन ऐसा लग रहा था. उस दिन उस के लिये वह दोनों के सिवा और किसी की अहमियत नहीं थी.
उस के ऐसे व्यवहार ने मुझे शुरू से अस्वस्थ कर दिया था. उस की हर कोई हरकत मेरे लिये तकलीफ देन साबित हुई थी.
वहां लड़को का एक ग्रुप भी आया था. हम लोग एक दूसरे से जुड़ गये थे. उन के साथ खेले थे. इतना हीं नहीं उन के फ़िल्म शहीद का गाना भी गाया था.
मेरा रंग दे बसंती चौला, मेरा रंग दे..
दम निकले इस देश की खातिर बस इतना अरमान हैं
एक बार इस राह में मरना सो जन्मों के समान हैं
देख के वीरों की क़ुरबानी (2)
अपना दिल भी डोला
मेरे निर्देशन पर वह लोग मेरा साथ दे रहे थे.
लेकिन सुहानी के व्यवहार ने मेरा ध्यान तोड़ दिया था और मैं ठीक से उस गीत को पूरा कर नहीं पाया था. इस बात का मुझे बुरा लगा था. वह लडके भी यह देखकर चकित से ऱह गये थे.
शाम को छह बजे हम लोग ट्रैन में घर लौटे थे.
और रास्ते में मेरे और सुहानी के बीच भिड़ंत हो गई थी. सुहानी ने हसमुख का पक्ष लिया था. जिस से मुझे बड़ी चोट लगी थी.
मैंने घर में सब के साथ बोलना बंद कर दिया था.
00000000000 ( क्रमशः )