Yaado ki Sahelgaah - 12 in Hindi Biography by Ramesh Desai books and stories PDF | यादो की सहेलगाह - रंजन कुमार देसाई (12)

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यादो की सहेलगाह - रंजन कुमार देसाई (12)

    

                      : : प्रकरण : : 12

       सुहानी के बारे में मैंने बहुत कुछ सुना था.

       मुझे उस से कुछ लेना नहीं थी.

       अब वह मेरी साली थी. उसे सन्मान देना मेरा कर्तव्य था. लेकिन नौकर ने उस को चुम्बन किया था. यह बात मुझे जती नहीं थी. शायद यह बात को उस की निजी जिंदगी से कुछ लेना देना था. उस का आजाद वर्तन हीं उस के लिये जिम्मेदार था. 

       मुझे घर के बिस्तर के सिवा रात को कहीं नींद नहीं आती थी.

       सुहानी का भी वही हाल था.

       उस स्थिति में हम दोनों एक दूसरे के साथ देर रात तक बातचीत में व्यस्त रहे थे. हमने अपने बारे में जरूरी बातें बताई थी.

      सुबह छह बजे के इर्द गिर्द हम लोग महाबलेश्वर पहुंच गये थे. वहाँ से मेटाडोर में हम लोग गेस्ट हाउस आये थे. उसे देखकर  पुरानी यादें ताज़ा हुई थी.

      बराबर एक साल पहले पिताजी मुझे इसी गेस्ट हाउस में लेकर आये थे. वहाँ गरिमा से मुलाक़ात हुई थी. उस के साथ हादसा हुआ था, जिस से उस का एक पैर काटना पड़ा था.

     यह याद आते ही मैं मायूस हो गया था.

     उस पर सुहानी ने मुझे सवाल किया था.

     " क्या हो गया जीजू? "

     उस वक़्त मैं कुछ ज्यादा बात करने की स्थिति में नहीं था.

     " बात लंबी हैं. कभी फुर्सत में बताऊंगा. "

      और हम गेस्ट हाउस में सेट हो गये थे.

       बाहर का खाना काफ़ी महँगा था. तो देवरानी- जेठानी सब कुछ खुद बनाते थे.

       रसोई के लिये जरूरी सामग्री लेने के लिये बहुधा साली जीजू साथ जाते थे. इस वजह से हम लोग बहुत करीब आ गये थे.

       दूसरे दिन रात को खाना खाने के बाद मैं और सुहानी टहलने के लिये बाहर निकले थे. वहाँ एक गार्डन भी था. हम लोग बेंच पर बैठकर बातें कर रहे थे. और मैंने गरिमा के साथ जो कुछ हुआ था, वह शब्दश सुहानी को बता दिया था. 

         सुनकर वह काफ़ी प्रभावित हो गई थी. उस ने मेरी तारीफ में जो कहां था. वह सुनकर मैं खुशी से झूम उठा था.

          " जीजू! आप तो भगवान हो! "

          " लोग जो कुछ भी कहते होंगे. लेकिन अनिश ने आप के बारे में सब कुछ सही बताया हैं. आप के साथ जो कुछ हुआ था उस बात से वह काफ़ी प्रताड़ित हैं. " 

       हम लोग परिवार सहित फ़िल्म देखने गये थे.

       बाद में दोपहर के तीन बजे के शो में मैं अपने साले साली को ' धरती ' फ़िल्म देखने ले गया था. उस वक़्त इस धरती पर कुछ ओर हुआ था, जिस की मुझे उस वक़्त जानकारी नहीं थी.

       रात को बारह बजे हम लोग सोने की तैयारी कर रहे थे. तब गेस्ट हाउस के मैनेजर ने मुझे आवाज देकर कहां था :

       मिस्टर संभव आप के नाम टेलिग्राम आया हैं.

       मैं तुरंत बिस्तर से उठकर मैनेजर की केबिन की ओर भागा था. और मेरे पीछे सुहानी भी दौड़ी थी.

       मैनेजर ने एक टेलिग्राम मेरे हाथों में थमाया था.

       मैंने तुरंत उसे फोडकर उस की लिखाई को पढ़ा था.

       " आरती ने एक पुत्र को जन्म दिया हैं, दोनों की तबियत ठीक हैं. "

       यह जानकार मैं खुशी से उछल पड़ा था. सुहानी को भी बड़ी खुशी हुई थी.

       मैंने उस से हाथ मिलाकर बधाई दी :

       " कोंग्रेट्स मौसी! "

       उस ने भी मेरा पुनरावर्तन करते हुए हाथ मिलाकर मुझे बधाई दी थी.

       पुत्र जन्म के समाचार से गेस्ट हाउस में खुशी का माहौल छा गया था. बाद में  देर तक कोई सो नहीं पाया था.

       वह किस पर गया होगा? इस बात पर मेरे और सुहानी के बीच बहस हुई थी:

       उस का कहना था, पुत्र अपनी मा पर गया होगा!

        ज़ब की मैं बडे विश्वास से कह रहा था : वह मेरे पर गया होगा.

        खुशी का माहौल था. उस वक़्त दूसरा टेलिग्राम आया था, जिसे पढ़कर सब की सांसे मानो रुक गई थी.

       " आरती की तबियत ख़राब हैं. संभव और बड़ी मा को फ़ौरन मुंबई भेजो. "

       अब इस टेलिग्राम का क्या मतलब निकल सकता था? डिलीवरी के बाद आरती की तबियत ख़राब हो गई होगी. हसीं खुशी का माहौल पलक झपकते हीं मातम में तब्दील हो गया था.

       क्या करे? कुछ समझ नहीं आ रहा था.

       सुबह में हसमुख महाबलेश्वर आने वाला था. अब सच्चाई वह खुद हीं बतायेगा.. तब तक इंतजार एक हीं विकल्प बचा था.

       सुबह साथ बजे हसमुख महाबलेश्वर आया था. उस ने सब सलामत का सिग्नल दिया था. और मानो सब की जाने लौट आई थी.

      पोस्टल खाते की गलती की वजह से यह स्थिति निर्माण हुई थी. एक टेलिग्राम में भेजनें का समय दर्ज नहीं था.

      मैं अपने पुत्र को देखने के लिये उतावला हो रहा था, मैं तुरंत हीं मुंबई जाने के लिये तैयार हो गया था. लेकिन सब ने मुझे रोक लिया था.

      उस दिन हम लोग पूरा टाइम घूमे थे. 

      हसमुख के आने के पहले मैं ख़ुश था.

      मुझे पिता का दर्जा हांसिल हुआ था.

      साथ में सुहानी का प्यार भी उपलब्ध हुआ था. लेकिन हसमुख के व्यवहार ने मेरा आनंद खट्टा कर दिया था. 

      जाते समय बस में मेरी बाजु में सुहानी बैठी थी. उस के साथ बातचीत करने का दोबारा मौका मिला था. हमारे बीच बहुत कुछ बातें हुई थी.. उस ने गरिमा के बारे में मुझे कई सवाल किया था. जिस का जवाब देने का मुझे मौका नहीं मिला था. मैंने लौटते समय उस का जवाब देने के बारे में सोचा था. उस वक़्त हसमुख चालाकी कर के बस में उस की बाजु में चिपक कर बैठ गया था. उस की ऐसी हरकत मुझे रास नहीं आई थी.

      उस की ऐसी हरकत से मेरा मूढ़ ओफ हो गया था. 

       लेकिन उस को अपनी हरकत का कोई अफ़सोस या रंज नहीं था. वह लागू प्रसाद था यह बात साबित कर दी थी. 

       सुहानी की एक बूरी आदत थी वह हर किसी के साथ जरूरत से ज्यादा इनवॉल्व हो जाती थी. और हसमुख उस का लाभ उठाने को सदैव तैयार रहता था.

       रात को सुहानी ने वादे के मुताबिक मेरे पैर दबाये थे. उस बात से मुझे अच्छा लगा था. उस ने जिस उत्साह से यह काम किया था, उस से मैं अधिक प्रभावित हो गया था. 

                    000000000000  ( क्रमशः)