: : प्रकरण : : 5
भरुच से वापस मैं नोर्मल महसूस कर रहा था.
छुट्टिया भी खतम हो गई थी. और एस एस सी का पहला सत्र शुरू हो गया था. मैं पढ़ाई में दयान देने की कोशिश करता था. अनन्या की बातें कदम कदम पर मुझे याद आती थी.
मेरे पिताजी ने मुझे कुछ सिखाया नहीं था. जो कुछ सिखा था. वह अनन्या से सीखा था. यह बात मैंने उसे बताई थी.
" तुम्ही मेरी शिक्षिका हो. तुम से ही मैंने बहुत कुछ सीखा हैं. "
" मैं भला तुम्हे सिखाने वाली कौन होती हूं."
वह भले यह बात का स्वीकार ना करे लेकिन एक बात तो साफ हो गई थी. भाई और प्रेमी में कोई फर्क नहीं होता.
इस अनुभव में मेरे दिमाग़ में कोम्प्लेक्स पैदा किया था.
यह बात मेरी समझ में कभी नहीं आती. लेकिन मेरे पसंदीदा लेखक के जरिये मैंने जिंदगी का बहुत बड़ा सत्य समझा था.
उन्होंने ने अपनी एक उपन्यास में लिखा था.
प्रेम की शुरुआत अक्सर भाई बहन के रिश्ते से होती हैं.
उस के बाद मैंने अनन्या और अपूर्व को दोषित ठहराना बंद कर दिया था.
एस एस सी के दौरान मुझे अपने ही दोस्त की बहन का आकर्षण हो गया था. वह फ़िल्म मेरे मेहबूब की नायिका की प्रतिकृति थी.
फ़िल्म देखने के बाद मुझे उस से लगाव हो गया था. लेकिन मैं इस रास्ते आगे बढ़ नहीं पाया था. जिस की दो बजह थी एक तो मेरा शर्मीला स्वभाव, हिम्मत का अभाव और दूसरा उस की सगाई हो चुकी थी. विदाय समारोह में केवल उस के हाथों से डिश पाने का श्रेय मुझे प्राप्त हुआ था.
छह मासिक इम्तिहान तक सब कुछ ठीक चल रहा था. अनन्या को मैं दिल से निकाल नहीं पाया था. इस स्थिति में मुझे ख़ुदकुशी करने के ख्याल सताते थे.
मैं उस के लिये तैयार भी हो गया था. जहर की बोतल होठों तक ले गया था.
उस वक़्त मेरे दिमाग़ में ख्याल आया था. अनन्या के किस्से में जो हुआ था. उस में मेरे घर वालों का क्या अपराध था.
उस वक़्त मुझे याद आया था. उस ने मुझे ' सुजाता ' फ़िल्म की कहानी सुनाई थी. उस से मैं काफ़ी प्रभावित हुआ था. बाद में मैंने खुद यह फ़िल्म देखी थी. फ़िल्म की नायिका अछूत थी. हर कोई उस से नफ़रत करता था, उस स्थिति में सब लोग उस से दूर रहते थे. इस स्थिति से त्रस्त होकर वह ख़ुदकुशी करने के लिये निकल पड़ती हैं.
उस वक़्त मुशलाधार बारिश हो रही थी. और वह भागी जा रही थी. उस वक़्त उस की साड़ी का कोना किसी चीज में अटक जाता हैं. कोई उसे रोक रहा था यह सोचकर मुड़कर पीछे देखती हैं.
पीछे महात्मा गांधीजी की प्रतिमा थी. उस में उस का कौना फ़स जाता हैं. प्रतिमा के नीचे की लिखाई देखकर उसके पैर मानो जमीन में गड जाते हैं.
" मरे कैसे आत्म हत्या कर के. कभी nhi आवश्यकता हो तो जिंदा रहने के लिये. "
यह पढ़कर वह अपना इरादा बदल देती हैं.
यह बात याद आते ही मेरी बुद्धि ठिकाने पर आ गई थी. और आत्म हत्या के विचार को मन से निकाल दिया था.
लेकिन परेशानी का यह अंत नहीं था. मैं टाइफाइड का शिकार बन गया था. महिना मास मुझे बिस्तर पकड़ना पड़ा था. एस एस सी का साल था. मैं इम्तिहान में बैठ पाऊँगा के नहीं उस की चिंता हो रही थी.
टाइफाइड की बीमारी एक महिना चली थी. फिर भी अनन्या मुझे एक बार भी देखने नहीं आई थी. इस बात का मुझे बेहद रंज हुआ था. मैंने निशा को गुजारिश की थी: " अनन्या को मेरे पास लेकर आओ. "
लेकिन उस ने मुझे सहयोग नहीं दिया था.
वह भी हमारे पड़ोस में रहती थी. लेकिन उस के दिल में क्या था? समझ नहीं आ रहा था. उस के व्यवहार से ऐसा लगता था, मानो वह मुझे पसंद करती थी, लेकिन इस मुआमले वह बिल्कुल खामोश थी.
एक बार मैं बाहर खुर्सी डालकर अपने दोनों पैर कठघरे से टिका कर बैठा था. मानो आने जाने का रास्ता बंद कर दिया था.
उस वक़्त निशा आई थी. मैं जानता था. मैंने अपने पैर हटाये नहीं तो अपने हाथों से मेरे पैर हटाकर, हल्की सी मुस्कान से निकल गई थी.
उस के बाद एक बार मैं उस के भाई के उस की मौसी के घर गया था. लौटते समय निशा कम से कम मेरे साथ आधा घंटा अकेली थी. लेकिन पुरे रास्ते हमारे बीच कोई बात नहीं हुई थी.
मैं एस एस सी की इम्तिहान में बैठने के लिये समर्थ हुआ था, और पास भी हो गया था. कम मार्क्स मिले थे. लेकिन मैं हमारी पीढ़ी, हर पीढ़ी में पास होने वाला लड़का था. मेरे पिताजी ने ख़ुश होकर मुझे रिश्त वोच का उपहार दिया था.
और मैंने कोलेज में दाखला लिया था.
यहाँ का माहौल स्कूल से बिल्कुल अलग था.
लड़के लड़की यहाँ साथ पढ़ते थे. किसी भी प्रकार की बंधी नहीं थी.
हमें इंग्लिश सिखाने वाली प्रोफेसर का नाम अंजना तवकली था. वह जाने मैंने चरित्र अभिनेता मोती लाल के भतीजे की बहू थी. उन की बेटी प्रीती सागर ने गायकी में अपना योग दान दिया था.
कोलेज में कुछ लड़कियो से मेरा परिचय हुआ था. उन के साथ बातचीत का नाता हुआ था. मुझे जीवन साथी की तलाश थी लेकिन अनन्या के साथ हुए अनुभव ने मुझे सब में अपनी बहन दिखाई देती थी.
इस लिये मैं प्रेम के बारे में सोचता नहीं था.
लेकिन एक लड़की ने मुझे उस के प्रति आकर्षित किया था. उस का नाम अरुणा था. और उस का चेहरा फ़िल्म तारिका वहिदा रहमान की याद दिलाता था.
मैं उस की ओर अपने कदम बढ़ा नहीं सका था, क्यों की वह हरदम एक लडके के साथ दिखाई देती थी जो कोलेज के एसोसिएशन का अध्यक्ष था.
लेकिन कुदरत को क्या मंजूर था?
दोनों की सगाई हो गई थी. शादी भी होने वाली थी. लेकिन स्कूटर दुर्घटना में उस की मौत हुई थी. और उस के लिये शोक समारोह का आयोजन किया गया था.
मैं समारोह में शामिल हुआ था.. मैं काफ़ी विचलित हुआ था. मेरे चेहरे पर अपने आदमी खो देने की चिंता झलक रही थी.
मेरे सभी दोस्त भी मेरी हालत को समझ नहीं पाये थे.
यह ईश्वर की बलिहारी थी. फिर भी मैंने अरुणा को पाने की मनसा की थी. उसी वजह से यह दुर्घटना हुई थी. मैंने अपने आप को अपराधी माना था.
000000000 ( क्रमशः)