Samta ke Pathik: Bhimrao - 18 in Hindi Biography by mood Writer books and stories PDF | समता के पथिकः भीमराव - 18

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समता के पथिकः भीमराव - 18

एपिसोड 18 – संविधान के निर्माता

स्वतंत्रता की आहट अब साफ सुनाई देने लगी थी।
1940 के दशक में अंग्रेजों की पकड़ ढीली पड़ रही थी और भारतीय नेताओं के बीच सत्ता हस्तांतरण की तैयारियाँ शुरू हो चुकी थीं।
लेकिन इस बीच सबसे बड़ा सवाल यह था—
“आज़ाद भारत किस रास्ते पर चलेगा? उसके नियम-कानून क्या होंगे? क्या वह सचमुच सबको बराबरी देगा?”

यही सवाल बाबासाहेब अंबेडकर के जीवन की अगली बड़ी भूमिका को जन्म देता है।


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संविधान सभा में प्रवेश

1946 में संविधान सभा का गठन हुआ।
यह सभा भारत के भविष्य की रूपरेखा तैयार करने के लिए चुनी गई थी।
शुरुआत में अंबेडकर का नाम संविधान सभा में शामिल नहीं था।
उनकी हार के पीछे कांग्रेस और ऊँची जातियों की राजनीति का बड़ा हाथ था।

लेकिन किस्मत और नियति ने एक नया मोड़ दिया।
बंगाल के शरणार्थी नेता जगजीवन राम और कांग्रेस के कुछ प्रगतिशील नेताओं ने महसूस किया कि अंबेडकर जैसे विद्वान और दलितों के सच्चे प्रतिनिधि के बिना संविधान अधूरा रहेगा।
बंगाल से ही अंबेडकर को संविधान सभा में चुनकर भेजा गया।

जब वे पहली बार संविधान सभा के हॉल में दाखिल हुए, तो माहौल बदल गया।
उनके प्रवेश ने दलित समाज ही नहीं, पूरे भारत को यह संदेश दिया—
अब आज़ाद भारत का कानून किसी एक वर्ग का नहीं होगा, बल्कि सबका होगा।


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ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष

29 अगस्त 1947 को डॉ. अंबेडकर को संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमेटी का अध्यक्ष नियुक्त किया गया।
यह उनके जीवन का सबसे बड़ा अवसर था, और शायद सबसे बड़ी परीक्षा भी।

अब उनके कंधों पर जिम्मेदारी थी—

30 करोड़ से ज्यादा भारतीयों का भविष्य तय करने की।

एक ऐसा संविधान बनाने की, जिसमें हर नागरिक को समान अधिकार मिले।

ऐसा संविधान जो हजारों साल की जातिगत असमानताओं को तोड़ सके।


अंबेडकर ने इस जिम्मेदारी को सिर्फ राजनीतिक काम नहीं माना।
उनके लिए यह एक धर्मयुद्ध था।
उन्होंने कहा—
“मैं ऐसे संविधान की रचना करना चाहता हूँ, जिसमें कमजोर से कमजोर आदमी भी यह महसूस करे कि यह उसका अपना है।”


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संविधान की रचना—एक महायज्ञ

संविधान बनाना आसान नहीं था।
सैकड़ों नेताओं की अलग-अलग राय थी।
कोई चाहता था कि भारत धर्म पर आधारित हो, कोई चाहता था कि परंपराओं को जगह मिले।
लेकिन अंबेडकर की सोच स्पष्ट थी—
“भारत एक आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राष्ट्र बनेगा।”

दिन-रात वे पढ़ते, लिखते और बहस करते।
उनके सामने दुनिया के 60 से ज्यादा देशों के संविधान रखे गए।
उन्होंने अमेरिका, ब्रिटेन, आयरलैंड, फ्रांस और जर्मनी के संविधान का गहराई से अध्ययन किया।

लेकिन अंबेडकर ने केवल नकल नहीं की।
उन्होंने भारत की ज़मीन, उसकी परंपराओं और सबसे बढ़कर दलितों और वंचितों के दर्द को आधार बनाया।


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समानता का सपना

अंबेडकर के संविधान में सबसे बड़ा सपना था—समानता।
उनकी लड़ाई सिर्फ राजनीतिक अधिकारों तक सीमित नहीं थी, बल्कि सामाजिक बराबरी तक फैली थी।

उन्होंने कहा—
“आज़ादी का मतलब केवल अंग्रेज़ों से मुक्ति नहीं है।
अगर हिंदू समाज की जाति-व्यवस्था कायम रही, तो गुलामी की जंजीरें फिर भी हमें बाँधेंगी।”

इसीलिए उन्होंने संविधान में विशेष प्रावधान किए—

छुआछूत को अपराध घोषित किया गया।

अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई।

सभी को शिक्षा और नौकरियों में समान अवसर देने का प्रावधान हुआ।



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धर्मनिरपेक्षता की नींव

एक बड़ा सवाल था—भारत का धर्म क्या होगा?
कुछ लोग चाहते थे कि भारत हिंदू राष्ट्र बने।
लेकिन अंबेडकर दृढ़ता से खड़े हुए।
उन्होंने कहा—
“राज्य का कोई धर्म नहीं हो सकता। राज्य सबका है—हिंदू का भी, मुसलमान का भी, ईसाई का भी और नास्तिक का भी।”

उनकी यह सोच भारत की सबसे बड़ी ताकत बन गई।
आज भी जब भारत की विविधता की बात होती है, तो उसके पीछे अंबेडकर की यही दृष्टि खड़ी है।


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लोकतंत्र और अधिकार

अंबेडकर को लोकतंत्र पर गहरा विश्वास था।
लेकिन उनके लिए लोकतंत्र केवल वोट डालने की प्रक्रिया नहीं था।
उनका मानना था—
“सच्चा लोकतंत्र वही है जिसमें कमजोर से कमजोर व्यक्ति भी खुद को मजबूत महसूस करे।”

इसी सोच से उन्होंने संविधान में मौलिक अधिकार दिए—

बोलने की आज़ादी

समानता का अधिकार

धर्म की स्वतंत्रता

शिक्षा और रोजगार में अवसर


उन्होंने लोकतंत्र की जड़ें इतनी गहरी कीं कि आज 75 साल बाद भी भारत का लोकतंत्र कायम है।


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आलोचनाएँ और चुनौतियाँ

संविधान बनाते समय अंबेडकर को बहुत आलोचना झेलनी पड़ी।
कई लोग कहते थे कि वे पश्चिमी विचारों को थोप रहे हैं।
कुछ लोग मानते थे कि आरक्षण समाज को तोड़ देगा।
गांधी की हत्या के बाद तो हालात और भी पेचीदा हो गए।

लेकिन अंबेडकर अपने फैसलों पर अडिग रहे।
वे कहते थे—
“मैं किसी वर्ग को खुश करने के लिए संविधान नहीं लिख रहा।
मैं ऐसा संविधान लिख रहा हूँ जो आने वाली पीढ़ियों को न्याय दे सके।”


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संविधान का अंगीकार

26 नवंबर 1949 को संविधान सभा ने भारत का संविधान स्वीकार कर लिया।
उस दिन हॉल में गूंजती तालियों की आवाज़ ने इतिहास लिख दिया।
अंबेडकर ने अंतिम भाषण में कहा—

“हम आज़ाद हैं।
हमारे पास अपना संविधान है।
अब यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम इसे केवल किताबों में न रखें, बल्कि अपने जीवन में उतारें।”

उस क्षण उन्हें केवल दलितों का नेता नहीं, बल्कि पूरे भारत का संविधान निर्माता मान लिया गया।


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एपिसोड का अंत

एपिसोड 18 यहाँ समाप्त होता है।
बाबासाहेब अब एक आंदोलनकारी से बढ़कर राष्ट्र निर्माता बन चुके हैं।
उनकी कलम ने भारत के भविष्य की रचना की और उनकी दृष्टि ने करोड़ों वंचितों को नई उम्मीद दी।