एपिसोड 7 – नौकरी से आंदोलन तक
बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर का जीवन उस समय एक ऐसे मोड़ पर था, जहाँ एक ओर उन्हें आरामदायक नौकरी और सम्मानजनक पद मिल चुका था, और दूसरी ओर समाज का कड़वा सच हर दिन उनके सामने नंगी तलवार बनकर खड़ा था।
बरौडा में अपमान की ज्वाला
बरौडा राज्य के गायकवाड़ महाराज उनके सबसे बड़े सहायक रहे थे। उन्होंने विदेश में उनकी पढ़ाई का खर्च उठाया। बदले में अम्बेडकर ने लौटकर बरौडा राज्य की सेवा करने का वचन दिया था।
इसलिए उन्हें फाइनेंस डिपार्टमेंट में अधिकारी बना दिया गया। एक तरफ वे ऊँचे पद पर थे, दूसरी तरफ उनका समाज उन्हें अब भी “अछूत” मानता था।
कार्यालय में उनके सहकर्मी उनकी मेज़ को छूते तक नहीं थे। उनके लिए पानी का अलग गिलास रखा जाता, वह भी कई बार गायब कर दिया जाता। एक बार जब अम्बेडकर ने अपने दस्तख़त के लिए पेन उठाया, तो बगल में बैठे एक बाबू ने मुँह बना लिया—
“साहब, आप ये पेन मत छूइए। हम बाद में धो देंगे।”
यह अपमान उनके दिल को चीर गया। उन्होंने महसूस किया कि डिग्रियाँ और उच्च पद भी इस घोर अन्याय को मिटा नहीं सकते।
घर की तलाश, लेकिन जाति आड़े आई
बरौडा में रहते हुए उन्हें घर किराए पर लेना था। वे कई जगह गए। मकान मालिक पहले तो खुश हो जाते कि एक पढ़ा-लिखा, ऊँचे पद वाला किराएदार मिलेगा। लेकिन जैसे ही उन्हें जाति का पता चलता, दरवाज़े बंद कर दिए जाते।
“माफ़ कीजिए, अभी घर खाली नहीं है।”
“अरे! ये घर आपके लिए नहीं है।”
दिन-ब-दिन यह अपमान उन्हें भीतर से तोड़ने लगा। अंततः उन्होंने निश्चय किया कि वे नौकरी छोड़ देंगे।
नौकरी से इस्तीफ़ा
यह निर्णय आसान नहीं था। बरौडा की नौकरी उनके जीवन को सुरक्षित बना सकती थी। लेकिन अम्बेडकर के लिए व्यक्तिगत सुविधा से बड़ी चीज़ थी—समाज की मुक्ति।
उन्होंने साफ़-साफ़ कहा—
“मैं उस नौकरी को नहीं कर सकता, जो मुझे रोज़ अपमानित करे और मेरे समाज की बेड़ियाँ तोड़ने से रोके।”
उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया।
मुंबई की नई राह
नौकरी छोड़कर अम्बेडकर मुंबई लौट आए। यहाँ उन्होंने सिडेनहैम कॉलेज में प्रोफेसर की नौकरी स्वीकार की। उनके विद्यार्थी उनसे बेहद प्रभावित रहते। वे कहते—
“गुरुजी हमें सिर्फ पढ़ाते नहीं, बल्कि इंसान बनना भी सिखाते हैं।”
लेकिन कॉलेज की दीवारों से बाहर आते ही वही पुरानी सामाजिक रुकावटें उनका पीछा करतीं।
कलम को हथियार बनाना
इसी दौरान अम्बेडकर ने तय किया कि उन्हें समाज के लिए एक ऐसी आवाज़ बननी है, जिसे दबाया न जा सके।
उन्होंने रात-दिन लिखना शुरू किया। किताबों और लेखों के माध्यम से वे जाति प्रथा पर चोट करने लगे।
उन्होंने महसूस किया—
“समाज का सबसे बड़ा दुश्मन उसकी अज्ञानता है। जब तक हमारे लोग पढ़ेंगे नहीं, समझेंगे नहीं, तब तक हम गुलाम रहेंगे।”
‘मूकनायक’ का जन्म
1920 में उन्होंने अपना पहला अख़बार मूकनायक निकाला।
यह अख़बार दलितों की आवाज़ बना। जिनके पास अपनी बात कहने का कोई मंच नहीं था, अब वे मूकनायक के माध्यम से बोलने लगे।
पहले ही अंक में अम्बेडकर ने लिखा—
“यह अख़बार उन गूंगे-बहरे लोगों की आवाज़ बनेगा, जिन्हें समाज ने इंसान मानने से इंकार कर दिया है।”
लोगों ने इसे हाथों-हाथ लिया। गाँव-गाँव में मूकनायक पहुँचने लगा।
परिवार और संघर्ष
घर पर हालात कठिन थे। पैसों की कमी अक्सर झगड़े का कारण बनती। रिश्तेदार कहते—
“बाबासाहेब, आप लाखों में एक हैं। इतनी पढ़ाई की है। आराम से नौकरी कीजिए, सुख से जीवन बिताइए।”
लेकिन वे शांत स्वर में उत्तर देते—
“अगर मैं अकेले सुख से जी लूँ और मेरा समाज अंधेरे में तड़पता रहे, तो मेरी पढ़ाई का कोई मूल्य नहीं।”
उनकी यह बात सुनकर लोग अवाक रह जाते।
जनता से जुड़ाव
अब वे सीधे जनता से जुड़ने लगे। मुंबई और उसके आसपास दलित समुदाय उन्हें बुलाने लगा। वे छोटे-छोटे सभाओं में जाते, गाँव वालों को शिक्षा का महत्व समझाते।
एक सभा में एक किसान ने उनसे सवाल किया—
“बाबासाहेब, अगर हम पढ़-लिख भी लें, तो ऊँची जाति वाले हमें बराबर मानेंगे क्या?”
अम्बेडकर ने जवाब दिया—
“शिक्षा तुम्हें ताक़त देगी। ताक़त से ही अधिकार मिलते हैं। एक दिन ऐसा आएगा जब कोई तुम्हें दबा नहीं पाएगा।”
लोगों की आँखों में उम्मीद की लौ जल उठती।
संघर्ष की नई दिशा
धीरे-धीरे उनका नाम फैलने लगा। लोग उन्हें सिर्फ विद्वान ही नहीं, बल्कि अपने नेता के रूप में देखने लगे।
अब उनका रास्ता तय हो चुका था—
नौकरी छोड़कर आंदोलन की ओर, व्यक्तिगत जीवन से त्याग करके समाज-सेवा की ओर।