एपिसोड 17 – आज़ादी की दहलीज़ और संविधान सभा का मार्ग
बाबासाहेब अंबेडकर का जीवन उस मोड़ पर पहुँच चुका था जहाँ व्यक्तिगत संघर्ष और सामूहिक आंदोलन दोनों एक साथ आकार ले रहे थे। 1940 का दशक भारतीय इतिहास का सबसे उथल-पुथल भरा दशक था। एक ओर अंग्रेज़ों की हुकूमत कमजोर हो रही थी, दूसरी ओर आज़ादी का आंदोलन तेज़ी पकड़ रहा था। महात्मा गांधी ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का आह्वान कर रहे थे, लाखों लोग सड़कों पर थे, जेलें भर चुकी थीं। लेकिन इस पूरे आंदोलन के बीच अंबेडकर का दृष्टिकोण अलग था। उनका मानना था कि केवल अंग्रेज़ों से आज़ादी ही पर्याप्त नहीं है, असली आज़ादी तब होगी जब भारतीय समाज जाति, छुआछूत और असमानता से मुक्त होगा।
अंबेडकर का यह नजरिया कांग्रेस के नेताओं को खटकता था। वे चाहते थे कि इस समय पूरा देश मिलकर अंग्रेज़ों को खदेड़े। लेकिन अंबेडकर बार-बार कहते थे—“कांग्रेस का ‘स्वराज’ ऊँचों के लिए है, नीचों के लिए नहीं। हमें उस स्वराज की कोई ज़रूरत नहीं जिसमें दलित और शोषित लोग फिर से दबे रहेंगे।” इसीलिए उन्होंने कांग्रेस की राजनीति से दूरी बनाए रखी और अपनी स्वतंत्र लाइन पर काम किया।
1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में जब देश भर में आंदोलनकारी जेलों में बंद किए जा रहे थे, अंबेडकर को वायसराय की परिषद् में श्रम मंत्री नियुक्त किया गया। यह पद उन्होंने इसलिए स्वीकार किया क्योंकि उनके विचार में यह अवसर था कि वे दलितों, मजदूरों और कामकाजी वर्ग के लिए कुछ ठोस कर सकें। उनके विरोधियों ने आरोप लगाया कि उन्होंने अंग्रेज़ों का साथ दिया, लेकिन बाबासाहेब का कहना था—“मैं अंग्रेज़ों का साथ नहीं दे रहा, मैं दलितों का साथ दे रहा हूँ। जब सत्ता के दरवाज़े खुले हैं, तब उस दरवाज़े से अपने लोगों के लिए अधिकार हासिल करना ही मेरा कर्तव्य है।”
श्रम मंत्री रहते हुए अंबेडकर ने कई ऐतिहासिक फैसले लिए। काम के घंटे आठ से अधिक नहीं होंगे, मजदूरों को छुट्टियाँ और मातृत्व लाभ मिलेगा, मजदूर संघों को मान्यता मिलेगी, इन सभी मुद्दों पर उन्होंने क्रांतिकारी कदम उठाए। उन्होंने भारत में ‘इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट्स एक्ट’, ‘माइनिंग लेबर प्रोटेक्शन’, और महिलाओं के श्रम अधिकारों पर कड़े कानून बनवाए। मजदूर वर्ग में अंबेडकर की पहचान एक सच्चे नेता के रूप में बनने लगी, जो उनके अधिकारों के लिए लड़ रहा था।
लेकिन राजनीति का असली मैदान संविधान सभा की ओर बढ़ रहा था। 1946 में जब ब्रिटिश सरकार ने भारत को स्वतंत्रता देने और संविधान बनाने की दिशा में कदम उठाया, तब एक सवाल उठा कि कौन लोग संविधान सभा में होंगे और संविधान किस दृष्टि से लिखा जाएगा। यहाँ अंबेडकर का कद और बढ़ गया। दलित समाज और मजदूर वर्ग के नेता के रूप में वे पहले से ही पहचान बना चुके थे। शुरू में वे संविधान सभा के लिए बंगाल से चुने गए, लेकिन वहाँ की राजनीतिक परिस्थितियों के कारण उनका सदस्यत्व समाप्त हो गया। यह अंबेडकर के लिए एक गहरी चोट थी, क्योंकि वे मानते थे कि अगर वे संविधान सभा में नहीं होंगे, तो दलित समाज की आवाज़ दबा दी जाएगी।
लेकिन इतिहास का चमत्कार देखिए—कुछ ही समय बाद बॉम्बे प्रेसीडेंसी की एक सीट से उन्हें दोबारा संविधान सभा में चुना गया। यह ऐसा क्षण था जिसने भारत के भविष्य को बदल दिया। अंबेडकर अब उस संस्था के सदस्य थे जो आने वाले स्वतंत्र भारत की बुनियाद रखने वाली थी।
संविधान सभा की चर्चाएँ शुरू हुईं। बड़े-बड़े नेता इसमें शामिल थे—नेहरू, पटेल, राजेन्द्र प्रसाद, मौलाना आज़ाद और भी कई नामचीन चेहरे। लेकिन उनमें एक आवाज़ सबसे अलग, सबसे तेज़ और सबसे तार्किक थी—डॉ. भीमराव अंबेडकर की। जब वे बोलते थे, तो सभा में सन्नाटा छा जाता था। उनकी बातों में तर्क भी था, गहराई भी और समाज के सबसे निचले तबके की पीड़ा भी।
1947 में भारत आज़ाद हुआ। देशभर में ख़ुशी की लहर दौड़ गई, लेकिन अंबेडकर के लिए यह क्षण केवल उत्सव का नहीं था, बल्कि जिम्मेदारी का भी था। स्वतंत्र भारत को चलाने के लिए संविधान लिखना था। पंडित नेहरू और सरदार पटेल दोनों इस बात पर सहमत थे कि संविधान बनाने वाली ड्राफ्टिंग कमेटी का अध्यक्ष कोई ऐसा होना चाहिए जो न केवल कानून का गहरा जानकार हो, बल्कि सामाजिक न्याय की दृष्टि से भी निष्पक्ष हो। और फिर सबकी नज़रें एक ही व्यक्ति पर टिक गईं—डॉ. अंबेडकर।
यह अंबेडकर के जीवन की सबसे बड़ी जिम्मेदारी थी। उन्होंने इसे केवल एक पद या सम्मान नहीं माना, बल्कि एक मिशन समझा। वे कहते थे—“मेरा काम है ऐसा संविधान बनाना जो हर उस व्यक्ति को यह अहसास दिलाए कि यह देश उसका अपना है। यहाँ कोई ऊँच-नीच नहीं, सब बराबर हैं।”
लेकिन यह काम आसान नहीं था। संविधान सभा में बार-बार बहस होती। कुछ लोग चाहते थे कि भारत एक धर्म-प्रधान राष्ट्र बने, कुछ चाहते थे कि जाति व्यवस्था बनी रहे, कुछ लोग महिलाओं के अधिकारों पर सवाल उठाते। हर मोर्चे पर अंबेडकर ने डटकर जवाब दिया। वे कहते—“अगर किसी राष्ट्र की नींव समानता पर नहीं होगी तो वह राष्ट्र कभी टिक नहीं पाएगा।”
उनकी सबसे बड़ी चिंता यह थी कि कहीं स्वतंत्र भारत में भी दलित वही गुलामी न झेलें जो सदियों से झेलते आए हैं। इसलिए उन्होंने संविधान में ‘समता’, ‘स्वतंत्रता’ और ‘बंधुता’ को आधार बनाया। उन्होंने मौलिक अधिकारों में छुआछूत के खिलाफ कानून, समान अवसर का अधिकार, और भेदभाव न करने की गारंटी दिलाई। यह सब आसान नहीं था, क्योंकि विरोध बहुत था। लेकिन अंबेडकर अपने तर्क और गहरी कानूनी समझ से हर तर्क को परास्त कर देते।
सभा के कई सदस्य अंबेडकर की तार्किक क्षमता और मेहनत से दंग रह जाते। नेहरू ने कहा था—“अगर इस सभा में कोई व्यक्ति है जो संविधान का शिल्पकार है, तो वह डॉ. अंबेडकर हैं।”
संविधान लिखते हुए अंबेडकर रात-दिन काम करते। उनकी मेज़ पर किताबों का ढेर रहता—अमेरिका का संविधान, ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली, फ्रांस का क्रांतिकारी घोषणापत्र, और साथ ही बौद्ध साहित्य। वे दुनिया भर के संविधानों से सीख लेकर ऐसा दस्तावेज़ तैयार कर रहे थे जो भारत की विविधता और जटिलता को संभाल सके।
लेकिन इस दौरान उनके भीतर एक द्वंद्व भी था। वे देखते थे कि बाहर समाज में अभी भी जातिवाद जिंदा है, छुआछूत अब भी जारी है। वे कहते—“संविधान तो हम लिख देंगे, लेकिन यह खतरा हमेशा रहेगा कि लोग इसकी आत्मा को मार देंगे। अगर समाज नहीं बदलेगा, तो संविधान भी केवल कागज़ का टुकड़ा रह जाएगा।”
यह बात उनके उस प्रसिद्ध भाषण में झलकी, जो उन्होंने संविधान सभा में दिया। उन्होंने कहा—“26 जनवरी 1950 को हम राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल कर लेंगे, लेकिन सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्रता अभी अधूरी है। अगर हम राजनीतिक समानता और सामाजिक-आर्थिक असमानता के बीच तालमेल नहीं बैठा पाए, तो यह लोकतंत्र असफल हो जाएगा।”
यह चेतावनी केवल संविधान सभा को नहीं, आने वाली पीढ़ियों को भी थी।
इस पूरे दौर में अंबेडकर का व्यक्तित्व और भी विराट होता गया। अब वे केवल दलितों के नेता नहीं थे, बल्कि पूरे राष्ट्र के ‘संविधान निर्माता’ के रूप में स्थापित हो रहे थे। उनके चेहरे पर हमेशा गहरी थकान रहती, लेकिन आँखों में एक दृढ़ विश्वास चमकता—कि वे इस देश को एक न्यायपूर्ण दिशा देंगे।
1949 आते-आते संविधान का मसौदा तैयार हो गया। यह भारतीय इतिहास की सबसे लंबी और सबसे विस्तृत बहसों का परिणाम था। जब संविधान सभा ने अंतिम रूप से इसे स्वीकार किया, तो अंबेडकर की आँखों में नमी थी। उन्होंने अपने जीवन का सबसे कठिन काम पूरा कर लिया था।
लेकिन वे जानते थे कि असली लड़ाई अब शुरू होगी—संविधान को केवल लागू करना नहीं, बल्कि उसे ज़मीन पर उतारना भी जरूरी है।