एपिसोड 8 – महाड़ का जलसत्याग्रह
साल 1920 के दशक में भारत अंग्रेज़ी हुकूमत से आज़ादी की लड़ाई लड़ रहा था। लेकिन दलितों के लिए असली लड़ाई सिर्फ़ अंग्रेजों से नहीं, बल्कि समाज की जकड़ी हुई सोच और जाति-प्रथा से थी।
गाँवों में आज भी दलितों को सार्वजनिक कुओं, तालाबों या मंदिरों से पानी लेने की अनुमति नहीं थी। अगर कोई प्यास से बेहाल होकर भी तालाब छू ले, तो ऊँची जाति के लोग उस पानी को ‘अपवित्र’ कहकर बहा देते थे।
महाड़ (जिला रायगढ़, महाराष्ट्र) का चावदार तालाब इसी अन्याय का प्रतीक था। यह तालाब नगर परिषद का था, यानी सरकारी संपत्ति। लेकिन सदियों से दलितों को वहाँ से पानी लेने का हक़ नहीं था।
अम्बेडकर की पुकार
1924 में अंबेडकर ने बहिष्कृत हितकारिणी सभा बनाई। इसका उद्देश्य था—
1. दलितों को शिक्षा दिलाना
2. उनके सामाजिक अधिकारों की रक्षा करना
3. उनके आत्म-सम्मान को जगाना
1927 में उन्होंने महाड़ में एक बड़ा सम्मेलन बुलाया। हज़ारों दलित पुरुष, महिलाएँ और बच्चे वहाँ जुटे। मंच पर अंबेडकर खड़े थे। उनका स्वर गूँज उठा—
“हम इंसान हैं। हमें जीने का, साँस लेने का और पानी पीने का उतना ही अधिकार है, जितना किसी और को। आज हम इस तालाब से पानी लेकर अपने हक़ का उद्घोष करेंगे।”
चावदार तालाब की ओर कूच
सम्मेलन के बाद अंबेडकर ने सबको लेकर तालाब की ओर कूच किया। भीड़ में उत्साह था, लेकिन दिलों में डर भी छिपा था—“क्या ऊँची जाति वाले हमें मारेंगे?”
अंबेडकर ने सबको साहस दिलाया—
“सत्य के मार्ग पर डरना पाप है। आज हम पीछे नहीं हटेंगे।”
वे तालाब के किनारे पहुँचे। बाबासाहेब ने अपने हाथों से पानी भरा और पिया।
फिर उन्होंने कहा—
“आज से यह पानी सबका है। कोई इसे हमें रोक नहीं सकता।”
भीड़ में खुशी की लहर दौड़ गई। लोग तालाब से पानी भरने लगे। महिलाएँ आँसुओं के साथ कह रही थीं—
“आज हमने पहली बार आज़ादी का स्वाद चखा है।”
सामाजिक तूफ़ान
लेकिन इस सत्याग्रह ने ऊँची जातियों को भड़काया। उन्होंने इसे ‘धर्म का अपमान’ बताया। कुछ ही दिनों में तालाब के पानी को ‘शुद्ध’ करने के नाम पर गंगाजल और गोबर से छिड़काव किया गया।
दलितों के घरों पर हमले हुए।
लेकिन अंबेडकर पीछे हटने वालों में से नहीं थे।
सत्याग्रह का असर
महाड़ सत्याग्रह पूरे देश में गूंज गया। अख़बारों ने लिखा—
“एक दलित नेता ने पहली बार सार्वजनिक स्थल पर अपने समाज के अधिकारों के लिए संघर्ष छेड़ा है।”
दलित समाज में आत्मविश्वास का नया जन्म हुआ। अब वे समझ चुके थे कि—
“अधिकार मांगने से नहीं, संघर्ष करने से मिलते हैं।”
मनु स्मृति दहन
महाड़ सम्मेलन के दौरान एक और ऐतिहासिक घटना हुई।
अंबेडकर ने ब्राह्मणवाद की उस किताब—मनु स्मृति—का दहन किया, जिसमें अछूतों और स्त्रियों को नीचा दिखाने वाले नियम लिखे गए थे।
उन्होंने इसे जला कर समाज को संदेश दिया—
“अन्याय और गुलामी की हर किताब को जला देना होगा, तभी बराबरी का सूरज उगेगा।”
अम्बेडकर का संकल्प
महाड़ के सत्याग्रह के बाद अंबेडकर का व्यक्तित्व सिर्फ़ एक विद्वान या लेखक तक सीमित नहीं रहा। वे अब क्रांति के प्रतीक बन चुके थे।
उन्होंने सभा में घोषणा की—
“हम पानी के लिए लड़े, अब शिक्षा और मंदिर प्रवेश के लिए भी लड़ेंगे। हम तब तक नहीं रुकेंगे, जब तक इस देश में हर इंसान बराबरी से न जी सके।”
जनता की प्रतिक्रिया
गाँव-गाँव में लोग अंबेडकर के गीत गाने लगे। महिलाएँ बच्चों को यह कहकर प्रेरित करतीं—
“पढ़-लिखो, बाबासाहेब की तरह बनो।”
दलित युवाओं में एक नया आत्मगौरव जन्मा।