Samta ke Pathik: Bhimrao - 5 in Hindi Biography by mood Writer books and stories PDF | समता के पथिक: भीमराव - 5

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समता के पथिक: भीमराव - 5

एपिसोड 5 — “बरौडा के द्वार”

मुंबई की चहल-पहल और किताबों की खुशबू में भीमराव के दिन गुजर रहे थे, लेकिन अब उनकी मंज़िल सिर्फ शहर तक सीमित नहीं रही थी। सयाजीराव गायकवाड़ के छात्रवृत्ति प्रस्ताव ने उनके सामने एक नई दुनिया का दरवाज़ा खोल दिया था।

एक सुबह, पिता रामजी मालोजी ने उन्हें पास बुलाया—
“बेटा, महाराजा बरौडा ने तुझे बुलाया है। तू वहाँ जाकर अपनी आगे की पढ़ाई करेगा।”
भीमराव के चेहरे पर खुशी की चमक फैल गई, लेकिन साथ ही एक गंभीरता भी।
“बाबा, वहाँ भी क्या लोग हमें जात से पहचानेंगे?”
पिता ने उनके कंधे पर हाथ रखा—
“शायद… पर याद रख, अब तू सिर्फ अपने लिए नहीं पढ़ रहा, पूरे समाज के लिए पढ़ रहा है।”

बरौडा की ओर

1908 की ठंडी सुबह, भीमराव पहली बार गुजरात की ओर यात्रा पर निकले। रेल की खिड़की से गुजरते खेत, नदियाँ और गाँव देखते हुए, वे सोचते रहे—क्या सचमुच शिक्षा इतनी ताकतवर है कि ये सभी दीवारें गिरा सके?

बरौडा स्टेशन पर पहुँचते ही, एक सरकारी सिपाही उन्हें लेने आया। घोड़ा-गाड़ी में बैठते हुए भीमराव ने देखा—शहर में चौड़ी सड़कें, विशाल महल, और जगह-जगह फव्वारे थे।

महाराजा से मुलाकात

गायकवाड़ महल में, महाराजा सयाजीराव उनका इंतज़ार कर रहे थे। वे एक खुले विचारों वाले शासक थे, जो शिक्षा और सुधारों में विश्वास रखते थे।
“तो तुम भीमराव हो?” महाराजा ने मुस्कुराते हुए पूछा।
भीमराव ने झुककर प्रणाम किया—“जी हाँ, महाराज।”
“मैंने तुम्हारे बारे में सुना है। तुम मेहनती हो, और मुझे ऐसे लोगों की ज़रूरत है जो हमारे देश को बदल सकें। तुम्हें आगे की पढ़ाई के लिए मेरी ओर से पूरी सहायता मिलेगी।”

भीमराव ने महसूस किया—यह सिर्फ छात्रवृत्ति नहीं, बल्कि एक ज़िम्मेदारी है।

कॉलेज का नया माहौल

बरौडा में भीमराव का दाखिला एलफिंस्टन कॉलेज के जूनियर ब्रांच में हुआ। यहाँ पढ़ाई का स्तर और ऊँचा था। अंग्रेजी, गणित, इतिहास, राजनीतिक विज्ञान—सब में गहरी समझ की ज़रूरत थी।
लेकिन जात का भेद यहाँ भी पीछा करता रहा।
कॉलेज हॉस्टल में, जब उन्हें कमरा मिला, तो साथ रहने वाले छात्रों ने धीरे-धीरे दूरी बना ली। एक ने तो खुलकर कह दिया—
“हम महार के साथ खाना नहीं खाएँगे।”
भीमराव को चोट पहुँची, लेकिन उन्होंने चुपचाप अपना अलग बर्तन रखा और पढ़ाई में मन लगाया।

पहली बड़ी परीक्षा

1909 में, उन्होंने मैट्रिक के बाद इंटरमीडिएट की परीक्षा दी। नतीजे में वे पास हुए—वह भी अच्छे अंकों से। यह उनकी यात्रा का एक और पड़ाव था।
उसी साल, घर में एक नई चुनौती आई—पिता चाहते थे कि उनकी शादी हो जाए।
भीमराव ने विरोध किया—
“बाबा, मैं अभी पढ़ाई में हूँ, शादी से मेरा ध्यान बँट जाएगा।”
लेकिन उस दौर में यह आम था, और परिवार की जिद के आगे उन्हें झुकना पड़ा। उनकी शादी रमाबाई से हुई, जो एक साधारण, शांत स्वभाव की लड़की थीं।

मुंबई वापसी और सपना बड़ा होने का

शादी के बाद वे फिर मुंबई लौटे, क्योंकि बरौडा सरकार ने उन्हें आगे की पढ़ाई के लिए वहाँ भेजा। अब वे बी.ए. की पढ़ाई कर रहे थे।
मुंबई के कॉलेज में उनका दायरा बढ़ने लगा—वे किताबों के साथ-साथ बहसों और चर्चाओं में भी हिस्सा लेने लगे।
उन्होंने पहली बार John Stuart Mill और Herbert Spencer के विचार पढ़े—स्वतंत्रता, समानता, और सामाजिक न्याय पर आधारित विचार।
उन्हें लगा—अगर ये विचार हमारे समाज में उतर जाएँ, तो सैकड़ों साल का अन्याय मिट सकता है।

छात्रवृत्ति का बड़ा तोहफ़ा

1912 में, सयाजीराव गायकवाड़ ने उन्हें एक और मौका दिया—विदेश जाकर पढ़ाई करने का!
जब यह खबर भीमराव को मिली, तो वे देर तक चुप बैठे रहे।
उनके मन में सतारा का वह बरामदा, पानी के मटके वाला स्टेशन, मिठाई का अलग थाल—सब तैर गया।
उन्होंने मन ही मन कहा—
“ये सफर सिर्फ मेरा नहीं, लाखों लोगों का है, जो मेरे साथ चल रहे हैं, भले ही वे यहाँ नहीं दिख रहे।”